SEBA Class 10 Hindi Rachana | रचना Class 10 SEBA

Join Roy Library Telegram Groups

SEBA Class 10 Hindi Rachana | रचना Class 10 SEBA SEBA Class 10 Students will find the solutions very useful for exam preparation. The experts of Roy Library provide solutions for every textbook question to help students understand and learn the language quickly. SEBA Class 10 Hindi Rachana | रचना Class 10 SEBA solutions are free to use and easily accessible.

SEBA Class 10 Hindi Rachana | रचना Class 10 SEBA

Hindi Medium Solutions by Roy Library helps students understand the literature lessons in the textbook. NCERT Solutions for SEBA Class 10 Hindi Rachana | रचना Class 10 SEBA The sole purpose of the solutions is to assist students in learning the language easily. SEBA Class 10 Hindi Question Answer gives you a better knowledge of all the chapters. SEBA Class 10 Hindi Notes, Class 10 Hindi Question Answer SEBA, Class 10 Hindi Book The experts have made attempts to make the solutions interesting, and students understand the concepts quickly. NCERT Solution Class 10 Hindi Grammar Class 10 Hindi Solutions, will be able to solve all the doubts of the students. 10th Class Hindi Book Open, Class X Hindi Question Answer provided are as per the Latest Curriculum and covers all the questions from the NCERT/CBSE Class 10 Hindi Textbooks. SEBA Class 10 Hindi Suggestion are present on Roy Library’s website in a systematic order.

रचना

 1. असम का प्राकृतिक सौन्दर्य

हमारे देश के उत्तर पुरब प्रांत में अवस्थित राज्यों में असम अन्यतम है। असम का प्राकृतिक द्दश्यों बड़ा हि प्रफुल्ल है। यह एक छोटा–सा राज्य है।

असम प्रकृति का लीलाभूमि है। इस राज्य के चारों ओर पर्वत–पाहाड़ एबं नदीयों से भरा हैं। प्रकृति ने इस राज्य को अपनी सुरक्षा के लिए ऊंची दिवार से रक्षा की है। चैत–वैशाख महीने के अवसर पर असम के पेड़–पौधों पर नये–नये पत्रों और फूलों से सुगन्ध निकलते हैं। पेड़ की नये नये पत्रों की डालियों पर बैठकर कोयल एवं अन्य चिड़ियां ने सुमधुर संगीत गाने लगते हैं। मयुर ने विभिन्न नृत्य करने लगते है। इस अवसर पर प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रभावित होकर मनुष्य के मन आनन्द से भर जाता है। हाथी, राइनो, बाघ, हिरण आदि जानवार देखने के लिए बाहर से बहुत आदमी आती हैं। असम के नदीयों में से सबसे बड़ा नदी ब्रम्हपुत्र हैं।

ग्रीष्म ऋतु जब आगमन होता उस समय गरमी के कारण जीव–जन्तुओं के दुखों की सीमा नहीं रहती। गरमी से सारे जीव–जन्तुओं के शरीर से पसीने निकलता है। उस समय पेड़–पौधों की छाया बहुत अच्छा लगता है। उस समय नद–नदीया का पानी सुखा जाता है।

उसके बाद वर्षा का आगमन होता है। उस समय आकाश में बादल रहेता है। वर्षा के समय वारीस का मात्रा बहुत ज्यादा होता है। नद–नदीयाँ में पानी से भर जाता है। हर साल वन्या भि होती है। इस वर्षा में ही आकाश मे इन्द्रधनुष दिखाई पड़ता हैं।

वर्षा के परवर्ती ऋतु शारद है। उसी समय पंकज आदि फुल खिलते है। वर्षा की गंदगी साफ हो जाता है। आकाश निर्मल होने लगता है। भौर ने फुलों से रस चुसते है। उसके बाद हेमंत ऋतु आती है। उस समय आकाश मे तारे तथा ग्रह नक्षत्र का रूप दिखाई पड़ती है। उसके बाद शीत। शीत यह रजा पड़ा अधिक होता है। उस समय अनेक लोग शरीर को गरम रखने के लिए आग जलाता है और उससे ताप लेता है। असम की प्रधान नदी ब्रह्मपुत्र के दोनों किनारों का द्दश्य मनोरम हो उठता है। इसके किनारे पर मन्दिर, घर, पेड़–पौधे तथा कलकारखाना है।

बाहार के लोगोने असम कों याद का राज्य कहता है। जो लोग असम में आता है उसकों जाने का मन ही नहीं करता। यह असम सब लोगो को आर्कषण करता है। असम देखने मे छोटा–सा राज्य हो सकता है लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य से वह बहुत बड़ा है। इसके वृद्धि करना हमारा कर्तव्य है।

2. लोकप्रिय गोपीनाथ बरदलै 

लोकप्रिय गोपीनाथ बरदलें हमारे देश भारतवर्ष के बड़े नेताओं में एक है। दुनिया में समाज की सेवा करनेवाले लोगों की संख्या बहुत कम है। पर वैसे लोग ही अपने की, घर को गाँव तथा समाज की, राज्य तथा देश को आगे बढ़ाते हैं। गोपीनाथ बरदलैं भी अपने गुणों के कारण ही एक ऐसे महान पुरूष बने थे। 

पिताजी बुद्धेशवर बरदलैं जी के रहा में रहने समय गोपीनाथ बरदलैं जो का जन्म हुआ था। बुद्धेशवर बरदले एक अच्छे बैद्य थे। माँ–बाप के साथ रहकर गोपीनाथ बरदलैं ने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की थी। बुद्धेखर बरदलैं से गोपीनाथ पर शांत प्रभाव का गहरा प्रभाव पड़ा था। उनकी माता भी एक धर्मशीला महिला थी। बुद्धेश्वर बरदलैं के घर में समाज के दो–चार मुखियाँ लोग विभित्र कामों से आना–जाना करते थे। वे लोग हमारे देश के बारे में विभित्र प्रकार की बाते करते थे। उसी समय से ही गोपीनाथ पर देशप्रेम की भावना का श्रीगणेश हुआ। बाल्यकाल से ही वे देश की उन्नति के बारे में सोचने लगे। उनके मन में यह धारणा बनी कि हम सभी संगठित होंकर ही पीछड़े हुए समाज को उत्रति के पथ पर आगे बड़ा सकते हैं।

S.L. No.CONTENTS
गद्यांश
पाठ – 1नींव की ईंट
पाठ – 2छोटा जादूगर
पाठ – 3नीलकंठ
पाठ – 4भोलाराम का जीव
पाठ – 5सड़क की बात
पाठ – 6चिट्ठियों की अनूठी दुनिया
पद्यांश
पाठ – 7साखी
पाठ – 8पद–त्रय
पाठ – 9जो बीत गयी
पाठ – 10कलम और तलवार
पाठ – 11कायर मत बन
पाठ – 12मृत्तिका
रचना

उस समय हमारे देश पर अंग्रेजों का शासन था। महामानव महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन आरम्भ हुआ। गोपीनाथ बरदलैं भी गांधी जी के अनुगामी बनकर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। वे असम के जनता को गाँधीजी की वाणियों के सार को प्रचार करने लगे। उनके आगमन पर असम के असहयोग आन्दोलन को और अधिक बल मिला। इस सन्दर्भ में उन्हें कोई बार जेल जाना पड़ा। हजारो कष्टों के झोलने हुए उन्होंने देश की सेवा की। उन्होंने जनता को सच्चा पथ प्रदर्शन किया। इसलिए वे जनता के प्यारे नेता बन गये।

अंग्रेज शासन के समय बरदलैं जी को असम राज्य के मुख्य मंत्री बनाए गए। मुख्य मंत्री बनकर वे असम राज्य की भलाई को दृष्टि में रखकर ही अंग्रेजों के आदेशों का पालन किया। उन्होंने असम राज्य की शिक्षा–व्यवस्था, उद्योग आदि का उन्नति के लिए काम करना शुरू किया। उनके नेतृत्व में हमारा राज्य प्रगति के पथ पर आगे बढ़ा।

उस समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सर्दार बल्लभभाई पटेल आदि नेता के साथ गोपीनाथ बरदलै, तरूणराम फुकन, नवीन बरदलै आदि ने आन्दोलन को सफल बनाने के लिए भरसक प्रयत्न किया। अंत में अंग्रेज सरकार ने भारत स्वतन्त्र करने का फैसला किया। उसी समय हमारे देश को अंग्रेजों ने भारत और पाकिस्तान नाम के दो भाग में बाँटकर स्वतन्त्रता दी। कुछ लोग असम को पाकिस्तान के साथ मिलाना चाहते थे। पर गोपीनाथ बरदलै के नेतृत्व में असम की जनता ने इस सिद्धांत का विरोध किया। इसी के फलस्वरूप असम स्वाधीन भारतवर्ष का एक अंग बना रहा।

स्वतन्त्रता के बाद गोपीनाथ बरदलैं जी फिर असम के मुख्य मंत्री बने। वे इस राज्य के पर्वत भैयाम के विभिन्न जाति–जनजाति गोष्ठियों की उन्नति के लिए काम करना शुरु किया। उन्होंनें खासकर पीछड़े हुए लोगों को आगे बढ़ाने के लिए पुरी तरह मदद की।

बादलै जी किसी प्रकार के जातिभेद नहीं मानते। वे हिन्दु–मुसलमान–इशाई विभिन्न संप्रदाय के लोगों के प्रति समभाव रखते थे। इसीलिए वे कहते थे— “असम में रहनेवाले सभी असमीया है। इस सबकी कंधे से कंधा मिलाकर असम की भलाई के लिए काम करना चाहिए।”

बादलैं जी सबके प्रिय नेता थे। इसीलिए जनता ने उन्हे “लोकप्रिय” उपाधि से विभूषित किया।

असम की शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए गोपीनाथ बरदलैं जी ने भरसक प्रयत्न किया। उन्होंने स्वाधीनता प्रिय छात्रों को पढ़ाने के लिए ‘कामरूप एकाडेमी स्कुल’ तथा “गुवाहाटी विश्वविद्यालय” की स्थापना कराई।

गाँधी से अनुप्रेरित होकर बरदलैं जी ने सोचा था राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है। राष्ट्रीय एकता मजवुत बनाने के लिए राष्ट्रभाषा का प्रचार करना अनिवार्य है। इसीलिए उन्होंने असम में असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना की।

बरदलैं जी साधारण जीवन यापन करते थे। वे हमेशा लोगों की सेवा में अपना समय व्यतीत करते थे। 1950 सन् के 5 अगष्त को लोकप्रिय बरदलैं का स्वर्गवास हुआ। उन्होंने असम के लिए समुचित प्रयत्न किया। इसी कारण उन्हें आधुनिक असम का निर्माता तथा निपुण कलाकार कहा जाता हैं।

3. विद्यार्थी जीवन

भूमिका: विद्यार्थी जीवन शेष जीवन की आधार शिला है। इसलिए मनुष्य जीवन में इसका विशेष महत्त्व है। इसकी नींव पक्की होने पर जीवन रूपी भवन भव्य और मजबुत होता है। जीवन के प्रारम्भिक कुछ वर्षो तक हमारी जानकारी नहीं के बराबर रहती है। इसलिए जीवन की यात्रा की तैयारी के लिए विद्धार्थी जीवन अत्यन्त उपयुक्त होता है। इसी समय विद्धार्थी नयी–नयी बातें सीखता है। तरह–तरह की आदतों को अपनाता है यदि अच्छी बातें और आदतें सीखी जायें तो विद्धार्थी उन्नति के शिखर पर सहजता पूर्वक चढ़ सकता है। विद्यार्थी जीवन में ज्ञान प्राप्त करने में आसानी होती है। इस काल में स्मरणशक्ति अधिक होती है। अंतएव इस समय का सही उपयोग आवश्यक है।

प्राचीनकाल और वर्तमान युग के विद्यार्थी: प्राचीनकाल में विद्यार्थी गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करता था जहाँ का वातावरण ज्ञान प्राप्ति के लिए अनुकूल होंता था। वहाँ संयम और अनुशासन के साथ गुरुभक्ति की भावना का विकाश होता था। विद्यार्थी का सच्चा चरित्र निर्माण होता था। उस समय शिक्षा के उद्देश्य मात्र पेट पालन नहीं, बल्कि ज्ञान प्राप्त करना और चरित्र निर्माण करना होता था। आज उससे बिलकुल विपरीत परिस्थिति है। आधुनिक काल के विद्यार्थी का जीवन दुषिंत हो गया है। आज की शिक्षा प्रणाली इतनी त्रुटिपूर्ण है कि विद्यार्थी तो चरित्र निर्माण कर न पाता और न ही जीविकोपार्जन का ज्ञान प्राप्त कर पाता है। इस तरह के विषयों की शिक्षा दी जाती है कि विद्यार्थी भावी या भविष्य जीवन में बेकार हो जाता है। जीविका के लिए दर–दर की ठोकर खाकर जीवन को नरक बना लेता है। शिक्षा पद्धति के देष के साथ–साथ आज का वातावरण भी गन्धा हो गया है। विद्यार्थीयों में वागाड़म्बर आ गया है। वे फैशन के पीछे पागल हो गये हैं। शहरी विद्यार्थी सिनेमा देखता है, सस्ते रोमांटिक और जासुसी साहित्य पढ़ता है। विद्यार्थीीयों में अनुशासनहीनता पैदा हो गयी है। संयम और परिश्रम का अभाव हो गया है। स्वास्थ्य और चरित्र निर्माण को वे दकियानुसी बात मानते हैं। बिना मर्यादा, लगन, निष्ठा और परिश्रम के किसी के लिए उन्नति कर पाना असम्भव होता है, जिसका विद्यार्थी में नितान्त अभाव है। इसके लिए मात्र विद्यार्थी ही दोषी नहीं है, बल्कि अभिभावक, शिक्षक और वर्तमान वातावरण तथा समाजव्यवस्था भी कम दोषी नहीं हैं।

विद्यार्थी जीवन मनुष्य के सही निर्माण काल होता है। इस काल में विद्यार्थी को दन्तोचित होकर अच्छे–अच्छे ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। महान पुरुषों के जीवन और कार्य से शिक्षा लेनी चाहिए जीवन में महान लक्ष्यों का अनुसरण ही जीवन को उन्नत बना सकता है। इस जीवन में सीखने की शक्ति, जोश और उमंग रहती है। अगर विद्यार्थी इन बातों को सही उपयोग करता है तो उसका भावी जीवन महान बनता है। विद्यार्थी, साहस, सहिष्णुता परिश्रम और उद्योग के साथ अपने कर्तव्य का पालन करता जाय तो कोई रक्त उसके विकास में बाधा नहीं डाल सकती है।

विद्यार्थी जीवन के कार्यक्रम: चरित्र मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी निधि है और चरित्र का सही निर्माण विद्यार्थी काल में हो होता है। बिना चरित्र के विद्वान व्यक्ति भी पूजनीय नहीं हो सकता है। श्रेष्ठ चरित्र का सर्वत्र आदर होता है। संयम और अनुशासन मनुष्य को उन्नति के शिखर पर आसीन करते हैं। विद्यार्थी को इन बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। व्ररह्मचर्य का पालन, शील–सदाचार को महत्त्व देना, समय पर कार्य करना, बड़ों को आदर देना और छोटों को स्नेहं देना विद्यार्थी का कर्तव्य होना चाहिए।

स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है। बचपन में मन के साथ–साथ शरीर के विकास की सम्भावना अधिक रहती है। विद्यार्थी को अपने शरीर के विकास और स्वास्थ्य कि लिए तरह–तरह के व्यायाम करना चाहिए। उसे यथाशक्ति खेलकूद में भाग लेना चाहिए। इससे शरीर मजबुत बनता है। मस्तिष्क ताजा रहता है, स्फुर्ति में बृद्धि होती है और पंढ़ने में रूचि पैदा होता है। अस्वस्थ और आलसी विद्यार्थी पढ़ने लिखने में कमजोर होता है। किसीने ठीक ही कहा है कि आलस्य ही मनुष्य के शरीर का सबसे बड़ा शत्रु होता है। विद्यार्थी को अपने समय के सदुपयोग के प्रति सतर्क और सचेष्ट रहना चाहिए। उसे हर काम समय पर करना चाहिए। उदासीनता से जीवन नष्ट हो जाता है। विद्यार्थी को नयी–नयी बातों को सीखने के लिए सर्वदा जिझासू रहना चाहिए। जिस विषय की जानकारी न हो उसे शिक्षक और अपने अभिभावक से निःसंकोच पूछना चाहिए। विद्यार्थी के लिए एकाग्रचित्त होना आवश्यक है। नहीं तो वह शिक्षक की बाते नहीं सीख सकेगा। किसी ने कहा भी है कि विद्यार्थी को कोवे के समान सचेष्ट, बंगुले के समान ध्यानी और कुत्तो की तरह नींद वाला होना चाहिए।

अभिभावक और गुरुजनों के प्रति भक्ति और श्रद्धा विद्यार्थी के लिए आवश्यक है। उसे अपनी परंपरा और विकास को समझना चाहिए। विनम्र और भक्त विद्यार्थी सहज ही बड़ों का कृपापात्र बन जाता है और उससे अधिक से अधिक सहयोग पाता है। बड़ो की कृपा से ज्ञान प्राप्त करने में आसानी होती है।

उपसंहार: विद्यार्थी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह राष्ट्र, जाति और समाज का भावी कर्णधार है। भविष्य उसके कन्धों पर दायित्व देनेवाला है। उस दायित्व को सफलतापूर्वक वहन करने की क्षमता अर्जित करने के लिए विद्यार्थी जीवन से अधिक उपयुक्त और कोई समय नहीं हो सकता है। विद्यार्थी को सच्चा नागरिक बनकर देश विशव मानवता के कल्याण के लिए अपने को समर्पित करना होता है। यदि उसमें अनुशासन, सहिष्णुता आत्मसंयम, क्षमाशीलता, स्वावलम्बन आदि गुणों का समुचित विकास होता तो वह देश और समाज के लिए भावी गौरव बनने में अवश्य सक्षम होगा।

4. क्रिकेट खेल यथा देखा हुआ क्रिकेट खेल का विवरण

मन में विमल आनन्द प्रदान करनेवाले साधनों में खेल अन्यतम है। आज हम विभिन्न प्रकार के खेल देखते— जिनमें फुटबाल, क्रिकेट, बास्केटबाल, भलीबाल, केरम आदि मुख्य है।

प्रत्येक देश का अपना अपना राष्ट्रीय खेल होता है। क्रिकेट अष्ट्रेलिया का राष्ट्रीय खेल है। वहाँ दुसरे सामानों से क्रिकेट खेल की कीमत बहुत ज्यादा है। आष्ट्रेलिया के बाद इंगलैंड और वेस्त इंडीज भी यह खेल बहुत पंसन्द करते है। हमारे देश में भी आज इस खेल की महत्त्व दिनों–दिन ब रहा है। पाकिस्तान में भी इस खेल का महत्त्व कम नहीं हैं। भारतवर्ष और पाकिस्तान में यह खेल जाड़े के मोसम में खेला जाता है। आष्ट्रेलिया और इंगलैंड में क्रिकेट खेल ग्रीष्म ऋतु में खेला जाता है।

क्रिकेट खेल के लिए बैंट वः व्रकेट और एक गेन यथा वल का जरूरत होता है। यह खेल २२ खिलाड़ियों में खेला जाता है। इसमें दो टीमे होते हैं। प्रत्येक टीम 11 11 खिलाड़ी होते हैं। प्रत्येक टीम के लिए और एक एक अतिरिक्त खिलाड़ी रहता है। किसी खिलाड़ी आहत होने पर बारहवाँ खिलाड़ी उस आहत आदमी का स्थान पुरण करता है।

खेल के शुरुवात होने पर दोनों दलों का नामाकरण होता है। जैसे– बैटिं दल और बौलि दल। बैटिं दल के दो और बौलिं दल के 11 खिलाड़ियों पैदान में रहते है। पहले दल के दोनों खिलाड़ियों के हाथ में एक एक बैंट होता है। जिन खिलाड़ियों के हाथों में बैंट होते हैं उन्हों बैटसमैन कहीं जाता है। जब दोनों बैंटसमैनों में से कोई–एक आउट होता है उसकी जगह भरने के लिए उसी दल का दुसरा खिलाड़ी आ जाता है। जब तक उस दल के सभी खिलाड़ी आउट नहीं होते, तब तक यह क्रम चलना रहता है। जब बेटिं दल के सभी खिलाड़ी आउट होते हैं तब बौलिं दल बैटिं दल ही बन जाता है। प्रत्येक दल दो दो इर्निस खेलने का अधिकार है। जिस दल की रन संखा अधिक होती है, वह विजयी होता है। इस खेल के परिचालक को आम्पायार कहा जाता है।

क्रिकेट खेल लम्बे–चौड़े मैदान में खेला जाता है। इस मैदान के बिच में 22 गज के फासले पर तीन तीन ‘विकेट’ गांड़ दिये जाते हैं। इसी तरह दुसरे तरफा पर भी तीन ‘विकेट’ गांड़े जाते हैं। गाड़े हुए विकेट की ऊँचाई 28 इंच होनी चाहिए। दोनों और विकेटों पर दो बेल (Bails) रखे जाते हैं। एक एक विकेटों के बीच एक एक बेटसमैन रहता है। उसे अपने विकेटो को गेन से बचाना पड़ता है।

उसके बाद दो अम्पायार मैदान में उतरते हैं। तब बैलिं दल के कैप्टेन के नेतृत्व में एक कतार में होकर मैदान में उतरता हैं। उसके बाद बैटिं दल के दो दो बैटसमैन दोनो विकेटों के सामने खड़े होते हैं। बैलिं दल के बौल फेंकने वाले को बोलर कहाते हैं। एक बोलर के छः बार बौल फेंकने के बाद दुसरा बौलर बौल फेंकता है। बौल मारने के बाद अगर बैटस मैन दोड़ कर अपना स्थान ले लो, तो वह रन बनाता है। मैदान की सीमा की बौल पार करने पर बौल मारने वाले को चार आउर उचाइसे जानेसे छे रन मिलता है। इसी को बाउण्डरी कहते हैं।

बौलर का लक्ष्य बौल को विकेट में लगाना है और बैटस मैन का काम यह है कि अपने बैट की सहायता से बौल को विकेट में लगने से बचाना है। बौलर को विपक्ष की पराजय के लिए बौल को ओर से फेंकना है जिससे विपक्ष के खिलाड़ी उसे पकड़ न सके या काफी दौड़ के बाद ही उसे पकड़ सके। उसी समय बैटस मैंन कुछ रन बनाते हैं।

साधारणतः यह खेल सबेरे 10 बजे से शाम को 4.30 बजे तक खेला जाता है। प्रत्येक घंटे के बाद पाच मिनट का विराम होता है। इसे ‘ड्रिंक इंटरबेल’ कहते हैं। फिर साढ़े बारह बजे से सवा एक बजे तक विश्राम रहता है। इस इंटरबेल को ‘लंच इंटरबेल’ कहाते है। उसके बाद सवा तीन बजे फिर 20 मिनट का विश्राम होता है। उसे ‘टी इंटरबेल’ कहते हैं। आमतौर पर लीग मैच, एक दिन खेला जाता है। देशों पर खेले जानेवाले मैच को टेस्ट कहते हैं। टेस्ट मैच पाँच दिनों तक चलता है। क्रिकेट खेल का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

5. एक यात्रा वर्णन

बहुत दिनों तक एक ही स्थान पर रहने से जीवन में नीरसता आ जाती है, मन बिमर्ष हो जाता है। इसके लिए मनुष्य को यात्रा करनी चाहिए। यात्रा से मनोरंजन के साथ–साथ अनुभव की प्राप्ति और स्वस्थ्य–लाभ होता है। इसमे जलवायु परिवर्तत होता है और नयी शक्ति मिलती है। यात्रा से लौटने पर काम में विशेष मन लगता है।

इस वर्ष ग्रीष्मावकाश के पाँच दिन पूर्व ही पिताजी का पत्र आया कि तुम छुट्टी पाते ही गाव चले आओ। तुम्हारी माँ का मन तुम्हें देखने के लिए व्याकुल है। पत्र पाना था कि मेरा मन कलकात्ता से उखह गया। मेरी आखों के सामने गाव का दृश्य नाचने लगा। माता–पिता और भाई–बहनों की याद सताने लगे। आखिर छुट्टी का दिन आ गया। सुबह से ही यात्रा की तैयारी करने लगा। कुछ आवश्यक सामान और भाई–बहन और माता–पिता के लिए कपड़े खरीद कर ले लिये। पुरी तैयारी जल्दी–जल्दी में की गाड़ी का समय निकट आ गया।

एक रिक्शो में सामान लाटकर स्टेशन के लिए प्रस्थान किया। गाड़ी आने से बीस मिनट पहले ही स्टेशन पहुँच गया। टिकट के लिए लाइन में खड़ा होकर धीरे–धीरे आगे बढ़ते हुने टिकट मिल गया। गाड़ी प्लेटफॉर्म पर लग गयी थी। उसके खुलने में सात–आठ मिनट ही शेष रह गये थे। ऐटर्फाम पर पहुँचा तो दंग रह गया। यात्रियों की भीड़ से पुरा ऐटर्फाम खचाखच भरा था। भीड़ और गर्मी से ऊब का साम्राज्य व्याप्त था। एक कुली की सहायता से किसी तरह धकव्म–पेल करते हुए मुश्किल से भीतर पहुचा गया। सौभाग्य से एक परिचित मित्र दो सीटों पर अधिकार जमाये बैठा था। उसने एक सीट खिड़की के पास दे दी। सीट के साथ मित्र मिलना मेरे लिए बड़ा सुखद था। डिबे और एोटर्फाम पर भीड़ ही भीड़ दिखाई दे रही थी, मानों कही से जन–समुद्र उमड़ आया हो। डिब्बे में बहुत गर्मी थी। शरीर पसीने से तखतार हो गया था। मन हो रहा था कि किसी तरह गाड़ी खुले और चैन की साँस मिले। गाड़ी ने सीटी दो और फिर मन्थर गति से बढ़ने लगी। गाड़ी धीरे–धीर गति पकड़ने लगी और कुछ ही देर बाद तेज गति से दौड़ने लगी। हवा से शरीर का पसीना सुख गया। मन में प्रसत्रता की लहर दौड़ने लगी।

अब मुझे मित्र का ध्यान आया। मैने उसके प्रति आभार प्रकट किया और धन्यवाद दिया। फिर हमारे बीच घुलमिलकर वातें होने लगीं। हम एक–दुसरे का कुशल क्षेम पूछने लंगे। कई महीने बाद उससे भेंट हुई थी। कलकात्ता जैसे व्यस्त नगर में हम अपनों से भी कटे रहते हैं। व्यक्तिगत समाचार जान लेने के बाद हम तरह–तरह की बातें करने लगी। मित्र के मिलने से अकेलेपन की आशंका मिट चुकी थी। बाद में आस-पास बैठे यात्रियों से भी परिचय हो गया। जो लोग गाड़ी में सवार होते समय एक दुसरे के साथ शत्रुओं जैसा। व्यवहार कर रहे थे वे अब एक–दुसरे के मित्र हो गये थे।

गाड़ी तेजी से मैदानी भाग से दौड़ रही थी। खिड़की के बाहर दूर–दूर तक बंगाल की शस्य श्यामला धरती फैली थी। ग्रीष्म के मौसम में भी चारो ओर हरियाली फैली हुई थी। कही ताड़ के पेड़ों की लम्बी कतार फैली हुई थी तो कहीं धान और पाट की हरी–भरी फसल लहरा रही थी। जलाशयों में तरह तरह के फुल खिले हुए थे। खेतों में हल चलाने किसानों को देखका अपने कृषि–प्रधान देश का ध्यान आया। किसान हमारा अप्रदाता है। यह धूप वर्षा और कड़ाके की सर्दी में कठोर परिश्रम करके अत्र पैदा करता है जिसमे लोग अपने जीवन को चलाते हैं। इतने कठिन श्रम के बाद भी गरीब किसान पेट खाकर सो जाता है। नदी–नालों, वन–पर्वतों खुले विस्तृत मैदानों में घास चरने जानवरो को देखकर मन आनन्द से पुलकित हो उठा। ये दृश्य आखों को बहुत ही सुखद लग रहे थे।

धीरे–धीरे सूर्य अस्त होने लगा। चारों ओर के प्रकाश को समेटता सूरजका अन्य में अस्त हो गया। प्रकाश के स्थान पर अन्धकार का साम्राज्य फैल गया और उसने सारे दृश्यों को अपने आँचल में छिपा लिया। हम लोग भी खाने–पाने की तैयारी करने लगे। मैंने अपने साथ पूड़िया और सब्जी रख ली थी। दोनों मित्र भोजन के पश्चात विश्राम की तैयारी में लग गये। गाड़ी की गति लोरी का काम कर रही थी। थोड़ी देर में हम निद्रा देवी की गोद में चले गये।

प्रातःकाल छः बजे मेरी नीद टूटी। उस समय का दृश्य अपूर्व था । अन्धकार दूर हो गया था। जो चीजें अन्धकार में डुब गयीं थी वे साकार हो उठी थी। सूर्य प्रकाश चारों ओर फैल गया था, किसी बड़े स्टेशन पर गाड़ी रूकी तो लोग सक्रिय हो उठे। कोई नित्य कर्म मे निवृत हो रहा है, कोई सबेरे का नास्ता कर रहा है। मैं और मेरे दोस्त ने एक एक टोस्ट खाया और एक–एक कप चाय पी। बाहर सिर निकाल कर देखा तो वह आरा स्टेशन था। मित्र को बक्सर स्टेशन पर उतरना था। गाड़ी खुली तो वह उतरने की तैयारी करने लगा। कुछ देर बाद उसका स्टेशन आ गया। मैंने सहायता करके इसका सामान उतरवाया। फिर हमारे बीच प्रणाम–नमस्कार आदान–प्रदान हुआ और मेरा दोस्त उतर गया।

गाड़ी फिर खुली, अब मैं अकेला था, लेकिन कोई चिन्ता नहीं थी। दो–तीन घण्टे की यात्रा शेष रह गयी थी। मन शीघ्र घर पहुँचने के लिए तड़प रहा था। परिवार से मिलने की बड़ी उत्सुकता मन कर रहा था कि ऊड़कर वहाँ पहुँच जाऊँ।

ढ़ाई घण्टे बाद मैं अपने स्टेशन बनारस कैंट में था। गाड़ी रुकी तो सामान उतारकर ऐटफर्म आया। तभी मेरे अभिभावक देखे। मैने दौड़कर उनके पैर छुये। पिताजी ने मुझे छाती से लगा लिया। माँ ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। मैं प्रसन्नता से कुला नहीं समा रहा था। माता–पिता के चेहरों पर प्रसन्नता की लहड़ दौड़ रही थी। उन्होंने हमारी कुशलता पूछी और यात्रा की कठिनाइयों के बारे में जानना चाहा। मेरी असमदेश यात्रा के समाचार से वे प्रसन्न हो गये। अब मेरा मन अपने भाई–बहनों और दुसरे परिजनों से मिलने के लिए तड़पने लगा। स्टेशन के बाहर खड़ी सवारी पर सामान लादकर सवार हुए। इस प्रकार मनोरंजन और आनन्द के साथ मेरी यात्रा समाप्त हुए और मैं सकुशल पर पहुँच गया।

6. अपनी प्रिय पुस्तक

मैंने हिन्दी भाषा में अनेक प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन किया है। उन ग्रंथों में तुलसीदास जी का ‘रामचरित मानस’, मैथिलीचरण, गुप्तजी के ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, जयशंकर प्रसाद का “कामायनी”, सुरदास जी के ‘सुरसागर,” “सुरसारावली” मीराबाई की ‘पदावली’ आदि अनेक काव्यों महाकाव्यों का अध्ययन किया। सभी ग्रंथों में मुझे गोस्वामी तुलसीदास जी का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रामचरित मानस’ मेरा सबसे प्रिय काव्य है।

रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दासजी का जन्म सन, 1532 ई० में हुआ था।

रामचरित मानस की रचना तिथि के बारे में तुलसीदासजी ने स्वयं लिखा है–

सम्वत् सौरह सौ इकतीसा, कहऊ कथा हरियद धारि सीसा।

नौमी भौमवार मधुवासा, अवधपुरी यह चरित्र प्रकाश”। इस प्रकार सम्वत् 1631 के चैतमास की नवमी मंगलवार के दिन इसकी रचना शुरू हुई।

इस काव्य में भगवान रामचन्द्र की बाल्यावस्था से सारे जीवन की विभित्र घटनाओं का धार्मिक वर्णन है। रामचरित मानस में सप्त कांड है – बालकांड अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किस्किन्धा कांड, सुन्दर कांड, लंकाकांड और उत्तर कांड है।

‘रामचरित मानस’ काव्य के बालकांड में श्रीराम–सीता के विवाह तक की कथाओं का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया गया है। रामचन्द्र के जीवन में घटित घटनाओं का वास्तविक चित्र इस कांड में देखने को मिलता है। 

दुसरा कांड अयोध्या कांड है। यह कांड राम से राज्याभिषेक से शुरू हुआ है और इसमें विमाता द्वारा वितारित होकर बन चले जाने की कथा तथा भरत द्वारा राम को अयोध्या लौटने में असमर्थ होकर उनकी पादुका को ही अयोध्या में स्थापना तक की कथा की करूण कहानी है। बिमाता के कारण समाज के युवक–युवतियों को जीवन में किस प्रकार कष्ट सहाना पड़ता है– यही शिक्षा मानस के अयोध्या कांड से मिलती है।

मानस के तीसरा कांड अरण्य कांड है। अयोध्या से जाकर राम ने अरण्य में प्रवेश करने तक की कथा से रावण द्वारा सीता हरण, सीता का विलाप, सीता की खोज में नारद–राम के संबाद तक की कथा का वर्णन है। अरण्यकांड से हमें यही शिक्षा मिलती है कि वुरे दिन पर लोगों को हजारों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है।

चोथा कांड किस्किन्धा कांड है। इस कांड में श्रीरामजी का हनुमानजी द्वारा सुग्रीव से मित्रता से सीता के अनुसंन्धान में हनुमानजी को लंका तक समुन्दर लाँघने तक की कथा का वर्णन है।

किस्किंधाकांड के बाद सुन्दरकांड है। इस कांड में हनुमानजी के लंकागमन से समुन्दर पर रामजी का क्रोध और समुन्दर की विनती तक की कथाओं का वर्णन है।

उसके बाद लंकाकांड है। इस कांड में लंका में घटित घटनाओं के वर्गर से सीता–रामजी का अवध के लिए प्रस्थान तक की कथा का वर्णन है। इसी कांड में दुष्ट रावण का वध और भगवान रामचन्द्र की विजय सुनिश्चित हुई। इसी में सीताजी का आगमन और अभिपरीक्षा की जाती है।

इसके बाद उत्तरकांड है। इस कांड में भरत विरह सें गरूडनी के साथ प्रशन तथा काक भुशुद्धि के उत्तर तक की कथा है।

प्रस्तुत काव्य में राम को एक आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श बंन्धु, आदर्श भाई, आदर्श राजा आदि विभित्र रूपो में दिखाया गया है। सीताजी को एक आदर्श पत्नी रूप में चित्रित किया गया है। पति की भलाई के लिए उन्होंने हजारों कष्टों का सामना किया। इस काव्य मे राजा दशरथ ने आदर्श पति और आदर्श पिता के रूप में परिचय दिया है। इस काव्य में कौशल्या ने आदर्श पत्नी का परिचय दिया है। एकमात्र प्रिय पुत्र राम को भी पति की प्रतिज्ञा रक्षा के लिए बन जाने दिया था। प्रस्तुत काव्य में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने आदर्श भाई का परिचय दिया है। भरत ने राम को वापस लाने की भरसक प्रयन्त किया था और उन्हें अयोध्या का राजा बनने के लिए अनुरोध किया था। शत्रुघ्न ने भरत की राज्य प्रीति में विद्रोह किया था। लक्ष्मण ने तो भातृ भक्ति का जैसा परिचय दिया है, वैसा दुनिया में बेजोड़ है। उन्होंने दुसरे कि नव–विवाहित पत्नी तक छोड़कर अपने भाई की रक्षा के लिए जंगल–जंगल में पर्यटन किया। दुष्टों के दमन के लिए वे हरदम तत्पर थे। इसीलिए ही उन्होंने शूर्पनखा के नाक–कान काट दिये तथा अनेक राक्षसों का निधन किया।

इस काम से हमें यही शिक्षा मिलती हैं कि हमें भी अपने माँ–वाप बन्धु–बान्धन, कुटुम्ब, भाई–बहेन आदि की भलाई के लिए अपने कर्तव्य में व्यस्त रहना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में भगवान रामचन्द्र की तरह न्याय से दूर होकर अन्याय को प्रश्रय नहीं देना चाहिए। हमारे सामने जब कइ–कर्तव्य आ पड़ता है उसी को करना चाहिए। हमेशा अपने पूजनीय जनों के प्रति श्रद्धा रखकर कर्त्तव्य के पथ पर अग्रसर होना चाहिए।

7. विद्यार्थियों का कर्त्तव्य

विद्यार्थी कहने से शिष्य अथवा छात्र का बोध होता है। इस द्दष्टि से देखा जाय तो प्राथमिक कक्षा से लेकर विश्वद्यालय तक पड़नेवाले सभी विद्यार्थी है। पर आयु भेद से उनके कतर्व्य भिन्न भिन्न होते हैं। कर्तव्य का यह अर्थ है कि क्या करना चाहिए। अतः हम कह सकते हैं कि करने योग्य वा करणीय कार्य ही कर्तव्य है।

समय के साथ साथ अध्ययन के नियमों में भी परिवर्तन होता रहता है। प्राचीन काल में छात्रों का अध्ययन ऋषि–मुनियों के आश्रम में गुरू की चरण में हुआ करता था। विद्यार्थी सामाजिक जीवन से दूर रह कर गुरु की शरण में गुरू–गृह में पढ़ा करते थे। उनका प्रधान उद्देश्य विभित्र शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना था। पचीस वर्ष शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात वे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे। ‘छात्रानां अध्ययनं तपः’। अर्थात अध्ययन अथवा शिक्षाग्रहणं ही विद्वार्थी का तप है। यह बात उस समय पुरी तरह चरितार्थ होती थी। ‘पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुगृह में रहकर उनकी सेवा में एकनिष्ठ भाव से ज्ञान अर्जन करना ही विद्यार्थी का परम कर्तव्य माना जाता था।

प्राचीन काल की तरह आज केवल शास्त्रों का ज्ञान ही काफी नहीं है, बल्कि अध्ययन का क्षेत्र सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि बहुत से विषयों तक बढ़ गया है। इसलिए विद्यार्थी को उनका ज्ञान देने की व्यवस्था रहती है, जिससे शिक्षा की समाप्ति के बाद ने सभी क्षेत्रों में अपने को खपा सके।

जब तक विद्यार्थी विद्यालय में रहे, तब तक अध्ययन करना ही उनका मुख्य कर्त्तव्य है। संसार में अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए छोटी अवस्था से शिक्षा प्राप्त करना बहुत जरुरी है, विद्यार्थियों की प्रतिभा विकशित करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। बिना श्रद्धा के भक्ति सिद्ध नहीं होती। इसलिए शिक्षार्थियों को चाहिए कि अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा और अध्यापकों के प्रति भक्ति भाव रखे। इसके अलावा उन्हें सभी विषयों के में जानने की इच्छा रखनी चाहिए।

विद्यालय में अध्ययन करने के अलावा छात्र के कुछ अन्य कर्तव्य भी है। उन्हें अपने शरीर के प्रति ध्यान देना चाहिए। स्वास्थ्य ही परम धन है। यह भावना विद्यार्थी के हृदय में स्थायी रूप से विसारी वाहिए। बीड़ी, सिगारेट आदि हानिकारकं चीजे सेवन कर स्वास्थ्य बिगाड़ने पर पसताना पड़ता है। नियमित रूप से खुली हवा में व्यायाम, खेलकुद, शारीरिक श्रम आदि से शरीर को मजबूत बनाना चाहिए।

आज का विद्यार्थी कल का नागरिक है। वह समाज का सदस्य है। अतः समाज के बाहर उसकी शिक्षा नहीं हो सकती। जबसे उसकी आंखे खुलती हैं तब से वह अपने को समाज में पाता है। उस समाज के प्रति भी उसका कर्त्तव्य है। समाज में उसके माता, पिता, भाई, बहेन और मित्र आदि रहते है। उन लोगो के साथ उसका व्यवहार शिष्ट, नम्र तथा प्रेम–पूर्ण होना चाहिए। वह आगे चलकर समाज का संचालन करेगा। इसलिए समाज के लोगों के साथ मिल–जुल कर काम करने का अभ्यास करना चाहिए। समाज में कई जातियों या सम्प्रदायों के लोग रहते हैं। कोई अमीर है तो कोई गरीब है। और कोई विद्वान है तो कोई निरक्षर, उन सब के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए, विद्यार्थीयों को ऐसा काम करना चाहिए, जिससे उनमें एकता और भातृत्व तथा देश के प्रति सम्मान की भावना दिनों दिन बढ़ती रहें। समाज की कुप्रथाओं या विषमतो और भोग–विलास से विद्यार्थीयों को दूर ही रहना चाहिए।

आर्थिक क्षेत्र में भी विद्यार्थी का कर्त्तव्य महान है। धन के बिना विद्यार्थी पढ़ भी नहीं सकता। भविष्य में उन्हें अपने परिवार के लोगों का पालन–पोषण करना पढ़ता है। इसलिए विद्यार्थियों को मितव्यय आदि भी सीखने की आवश्यकता है। देश और समाज की आर्थिक दशा को सुधारने का भार भी इन्ही विद्वार्थीयों पर है। इसलिए उन्हें इस दिशा का ज्ञान बढ़ना चाहिए।

अवसर के अनुसार शरीर और मन को प्रफुल्लित और विकशित करने वाली संस्थाओं में विद्यार्थियों को भाग लेना चाहिए। अपनी पाठ्य–पुस्तक के अलावा भी कुछ ऐसी पुस्तक हो जो जोवन को उन्नत बनाने में तथा हृदय के विकास में सहायता पहुँचाती हैं। चरित्र को ऊँचा उठाने वाले महापुरुषों की जीवनीयाँ अच्छी कहानियाँ तथा उपन्यास आदि भी पढ़ना चाहिए। उनसे चरित्र गठन के अलावा भाषा ज्ञान की वृद्धि होती है। विद्यार्थी को समय

समय पर साहित्यिक गोष्ठियों में भी भाग लेना चाहिए। आजकाल विद्यालयों में पाठ्य–पुस्तक की शिक्षा के अलावा भी संगीत, राष्ट्रीय शिक्षार्थी बाहिनी, बलवर कार्य, कर्ममुखी शिक्षा दी जाती है। विद्यार्थियों को इनसे लाभ उठाना चाहिए। उन्हें समाज की सेवा में हाथ भी बढ़ना चाहिए। बान, भुकम्पन; अकाल या ऐसे किसी अवसर पर तन–मन से सेवा के काम में आगे बढ़ा चाहिए।

साधारणतः विद्यार्थियों का हृदय पवित्र, कोमल तथा उदार होता है। इसलिए छोटी छोटी बातों मे या अफवाहों से वे उतावले हो जाते है। इससे अध्ययन में हानि पहुँचने की आशंका रहती है। अतः धैर्य, क्षमा, दया आदि का विकास करना विद्यार्थियों का लक्ष्य होना चाहिए। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उनकी उन्नति पर ही देश की भलाई निर्भर है। तात्पर्य यह कि आज के विद्यार्थियों को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान अर्जित करना चाहिए। हर विद्यार्थी स्वास्थ्य, ज्ञानी और कार्य कुशल बने तो देश को समृद्धिशाली बननें में अधिक समय नहीं लगेगा। देश की उन्नति विद्यार्थी पर ही निर्भर करता है। अतः विद्यार्थी को शरीर, मन और मस्तिष्क तीनो का विकास कर उत्तम नागरिक बनना चाहिए।

8. समाचार–पत्र 

मनुष्य स्वभावतः जिज्ञासु होता है। वह अपने बारे में जानता है, लेकिन इतने से ही उसे सन्तोष नहीं होता है। वह अपने आस–पास घटनेवाली घटनाओं, दुसरे के क्रिया–कलापों की भी जानकारी चाहता है। प्राचीन काल में व्यक्तिगत पत्रों के माध्यम से अपने परिचितों के बारे में जानकारी प्राप्त करता था, लेकिन दुर–दराज में घटनेवाली घटनाओं और आदमियों की अच्छाई–बुराई के बारे में कुछ भी नहीं जान पाता था। उनके बारे में जानने की जिज्ञासा ही कालान्तर में समाचार पत्रों के जन्म का कारण बनी।

देश–विदेश की साहित्य, संस्कृति, सभ्यता आदि का बाहक समाचार पत्र है। पहले पहले सत्रहवी शताब्दी में इंलैंड में समाचार पत्र निकला था। पर वह पत्र आजके पत्र की तरह सुन्दर नहीं था। कुछ दिन के बाद दिन समाचार पत्र का विकास हो रहा था। इसके फल स्वरूप सुन्दर समाचार पत्र हमें मिल रहे है।

अंग्रेज सरकार के जमाने में ही भारतवर्ष में समाचार पत्र का श्रीगणेश हुआ। कुछ लोग ‘इंडिया गेजेट’ को भारत का पहला समाचार पत्र मानते है और कुछ लोग ‘बेंगल गेजेट’ को पहला समाचार पत्र मानते हैं। उसके बाद अंग्रेज पदरी लोगों ने “ईशाई” धर्म के प्रचार के लिए “समाचार दर्पण ” नामक समाचार पत्र निकला था। उन पत्रों में ईसाइ धर्म का मतवाद तथा आदर्श का प्रचार किया था। उसमें दुसरी खबर बहुत कम थी। भारतीय लोगों से सम्पादित पहला समाचार पत्र कौमुदी है। राजा राम मोहन राय इसके सम्पादक थे। धीरे–धीरे सभी भारतीय भाषाओं में विभिन्न प्रकार के समाचार पत्र निकल रहे हैं।

आज हमें वार्षिक, अर्ध–वार्षिक, त्रैमासिक, मासिक, अर्ध–मासिक, साप्ताहिक, अर्धसाप्ताहिक, दैनिक आदि विभिन्न प्रकार के पत्रों की उत्पत्ति हुई। पर आज ये सभी पत्रों को समाचार पत्र नहीं कहा जाता है। इस समय केवल दैनिक पत्रों को मुख्यतः समाचार पत्र कहा जाता है। काफी पत्र–पत्रिकाए सूचनात्मक साहित्य के अन्तर्गत है।

अब समाचार पत्र का महत्त्व तथा दायित्व बहुत बढ़ गया है। आज समाचार पत्र में निरपेक्ष तथा शुद्ध खवरों का प्रचार अनिवार्य है। इसके सम्पादक निरपेक्ष, निर्भीक, साहसी, व्यक्तित्व सम्पन्न होना चाहिए। समाचार पत्र राजनीति तथा जनता से सम्बन्धित है। उसे देश–विदेश की प्रतिदिन की खबर प्रचारित करती है।

समाचार पत्र के द्वारा विशव के कोने–कोने में घटित घटनाओं को हमारा अवगत होता है। इसके द्वारा हमारी ज्ञान–वृद्धि होती है।

आज समाचार पत्र संसार की बड़ी शक्तियों में अन्यतम है। यह लोगों को देश–विदेश की विभित्र खबरों के अलावा देश या व्यक्ति को कल्याण का पथ प्रदर्शन करता है। समाचार पत्र अब एक अमोघ अस्त्र बना है।

समाचार पत्र के शैक्षिक और व्यापारिक महत्त्व भी कम नहीं है। शिक्षा सम्बंधी हलचल मचाने का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन है। व्यापारी लोग अपने व्यापार के प्रचार के लिए विज्ञापन देते हैं। इससे विभिन्न प्रकार के विज्ञापन प्रचार किये जाते हैं।

समाचार पत्र से कभी–कभी भूल समाचार भी प्रचारित हो जाता है। इससे लोगों में गलत कह मिथ्या फैल जाती है। भूल या अनुचित समाचार के प्रचार से लोगों को अपूरणीय क्षति होती है। समाचार पत्र का पार्टि प्रचार पत्र वनाना सबसे वुरा काम है।

प्रत्येक समाचार पत्र का पहला काम है झुट का खण्डन करते हुए सच को फैलना। उसका दुसरा काम है शुद्ध खबरों को सरल और सुबोध भाषा में प्रकाशित करना। उसका तीसरा महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है निश्चित समय पर हक पहुँचाना।

गणतंत्र में समाचार–पत्रों की बड़ी उपयोगिता है। वे जन–जागरण पैदा कर लोगो को उनके कर्तव्य के प्रति सावधान कर सकते हैं। जनवादी और लोकहितकारी मूल्यों की रक्षा और विकास करना ही समाचार पत्र का उद्देश्य होना चाहिए। सभ्यता और संस्कृति के उत्थान में इनकी भूमिका मूल्यवान है। वे राष्ट्र, समाज और विश्व की उन्नति में सर्वाधिक सहयोगी है।

9. अपने प्रिय खेल

खेलकूद स्वास्थ्य और मनोरंजन के प्रमुख साधन है। बचपन और नौजवानी में खेल खेलना तो अनिवार्य है। हर देश में अपने अपने खेल होते हैं जो वहाँ की जलवायु और वातावरण की देन होते हैं। कुछ एक खेल आंचलिक होतें हैं जो किसी किसी अंचल या प्रदेश में ही खेले जाते हैं। जबकि कतिपय खेल अन्तराष्ट्रीय होते हैं जो प्रायः संसार भर में खेले जाते हैं। हाँकी, क्रिकेट, फुटबाल टेनिस आदि खेल आन्तराष्ट्रीय महत्त्व खते हैं। फुटबाल बहुत सीधा–सादा और रोचक खेल है। इसमें रूपये और समय की बचत होती है। लेकिन स्वास्थ्य और मनोरंजन की दृष्टि से यह बहुत लाभदायक खेल है। वैसे फुटबाल भित्र रूप में प्राचीन काल से खेला जाता रहा है। हमारे देश में गेंद खेलने की प्राचीन परम्परा रही है। लेकिन आधुनिक युग में फुटबाल जिस ढंग से खेला जाता है वह अंग्रेजो की दान है।

फुटबाल के लिए साफ–सुथरा और घासों से भरा मैदान अच्छा माना जाता है। खेल का मैदान को दो भागों में समान रूप से विभक्त रहता है– जिसमें दोनों दलों के खिलाड़ी आमने–सामने खड़े होते हैं। दोनों दलों में 11–11 खिलाड़ी रहते हैं। मैदान के दोनो किनारों के मध्य भाग में एक एक गोल पोस्ट बने रहते हैं। मैदान के चारों और सीमा पर सफेद रेखाए खींच दी जाती हैं। म्यारह खिलाड़ियों में एक गोलकीपर, चार बैक, तीन सेन्टर हाफ और तीन फरर्वाद होते हैं। इसी तरह दूसरी और मे भी खिलाड़ी होते हैं। खिलाड़ियों को मैदान में उतरते ही चारों ओर दर्शको और खिलाड़ियों में तनाव आरम्भ हो जाते हैं। खेल शुरु होते ही दोनो दल गोल करने के लिए जी–जान से जुट जाते हैं। कभी गेंद एक ओर भागती है तों कभी दुसरी ओर। इस खेल में हाथ को छोड़ कर पाव से सिर तक के सभी अंगों का सहयोग लिया जाता है। गेंद मे किसी खिलाड़ी के हाथ छु जाने पर ‘ह्याण्डबाल’ हो जाता है।

फुटबाल के खेल के निर्णायक को रेफरी’ कहा जाता है। रेफरी का काम बड़ा दायित्वपूर्ण होता है। वह सतर्क निगाहों से प्रत्येक खिलाड़ी की गतिविधि पर निगाह रखता है। किसी भी खिलाड़ी के नियम तोड़ने पर सीटी बजाकर खेल रोक देता है और फाउल करने वाले दल के बिपक्षी दल को गेंद मारने का अवसर देता है। जो दल अधिक गोल करता है उसे विजयी घोषित किया जाता है।

इस खेल से अनेक लाभ हैं। इस खेल में खिलाड़ियों को खुब दौड़ना पड़ता है। इससे उनका शारीरिक व्यायाम हो जाता है। उनका शरीर सुडौल और मजबुत हो जाता है। यह खेल मनोरंजन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। खिलाड़ी के मन में स्फुर्ति पैदा होती है, मन प्रसन्न रहता है।

फुटबाल से सहकारिता और सहयोग की भावना पैदा होती है। प्रत्येक खिलाड़ी एक–दुसरे को सहयोग देते हुए गोल करने में सफल होता है। जो दल इस सहयोगी–पद्धति का अनुकरण नहीं करता वह पराजित होता है। इसमे सार्वजनिक हितों के लिए व्यक्तिगत त्याग की शिक्षा मिलती है। इस खेल से अनुशासन की भावना विकसित होती है। कोई भी काम अनुशासन के बिना किसी भी मूल्य पर पूरा नहीं हो सकता है। खेल सच्चे नागरिक मबमाने के महत्त्वपूर्ण साधन है।

विद्यार्थी के लिए फुटबाल का खेल हर दृष्टि से लाभप्रद है। अन्य विदेशी खेलों अपेक्षा इस खेल पर समय और अर्थ का व्यय अधिक नहीं होता है। पोलो, क्रिकेट आदि खेल बहुत खर्चत होते हैं। क्रिकेट तो समय और रुपयों की बरबादी करने का साधन है। इनके निर्णय में महीनों का समय और करोड़ों रूपये व्यय होते हैं। फुटबाल के बारे में ऐसी बात नहीं है।

फुटबाल हर विद्यार्थी को खेलना चाहिए। हर विद्यालय को इस खेल कघ व्यवस्था करनी चाहिए। गरीब–से–गरीब विद्यालय भी इस खेल की व्यवस्था कर सकता है। देहातों में जहां बड़े–बड़े मैदान हैं फुटबाल के लिए बहुत सुविधाजनक है। देहाती विद्यालयों में फुटबाल की लोकप्रियता दिन–प्रतिदिन वढ़ती जा रही है। स्वास्थ्य और मनोरंजन के लिए फुटबाल का प्रचार–प्रसार अवश्य होनी चाहिए।

10. विद्यार्थीयों में अनुशासन या अनुशासनहीनता

देश, समाज, परिवार अथवा संगठन को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए उसके द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करना आवश्यक है। इन नियमों का पालन अनुशासन द्वारा ही सम्भव है। अनुशासन का अर्थ है व्यवस्था का अनुकरण करना, नियम के अनुसार चलना। अनुशासन और शासन में यह भद है कि जहाँ अनुशासन बिना किसी बाहरी दबाब के स्वयं के विवेक से बनता है वहाँ शासन के अन्तर्गत दबाब डालकर उसका पालन करने को विवश किया जाता है। वैसे तो अनुशासन जीवन के हर क्षेत्र के लिए आवश्यक है, लेकिन विद्यार्थी जीवन का एक ऐसी नींव है जिस पर जीवन रूपी भवन का निर्माण होता है। नींव जितनी ही मजबूत होगी भवन भी उतना ही सुद्दढ़ होगा। हमें जो कुछ बनाना है वह हम विद्यार्थी जीवन में ही बनाते हैं। अतएव विद्यार्थी जीवन अनुशासित रहकर अध्ययन करना आवश्यक है।

आधुनिक युग में विद्यार्थीयों में अनुशासनहीनता का रोग व्यापक हो गया है। आज हर शिक्षण–संस्था इस रोग का शिकार है। आये दिन हड़ताल, तौड़फौड़, शिक्षकों को अपमानित करना आम वात हो गयी है। सामुहिक कार्यक्रमों कें अवसर पर अनुशासनहीनता का नंगा नाच देखकर शर्म से माथा झुक जाता है। इस अवसर पर शोर–गुल करना, कार्यक्रम को ठीक से न चलने देना, बीच–बीच में अभद्रता का प्रदर्शन करना साधारण बात हो गयी है। कक्षाओं में यह द्दश्य और अधिक शोचनीय रूप से घटित होता है। एक ओर शिक्षक पढ़ा रहा है, दुसरी ओर विद्यार्थी शरारत कर रहे हैं। इस वातावरण में योग्य–से–योग्य शिक्षक के लिए भी शिक्षा दे पाना असम्भव है। अनुशासनहीनता का प्रदर्शन सामाजिक जीवन में भी आये दिन होता रहता है। यों तो अनुशासनहीनता हमारे समुचे जीवन का अंग बन चुकी है, कोइ संस्था, संगठन अथवा समाज इससे वंचित नहीं है। लेकिन शैक्षणिक संस्थाओं की जो हालत है वह अत्यन्त दमनीय है। शिक्षा–संस्थाए सरस्वती का मन्दिर है। इसकी पवित्रता की रक्षा करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। अनुशासित विद्यालयों के शांतिपूर्ण बातावरण में ही वास्तविक शिक्षा दी जा सकती है।

बच्चे अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित होते हैं। इस काल में उनके मस्तिष्क में जैसा बीज बोया जाता है वैसी ही फसल पैदा होती है। बच्चों में अच्छे संस्कार डालना, उन्हें नियमबद्ध जीवन जीने की शिक्षा देना, उनका उत्तम चरित्र निर्मीत करना, माता–पिता पर निर्भर करना है, क्योंकि परिवार मनुष्य की प्रथम पाठशाला है। इस समय बच्चों को जो शिक्षा दी जाती है वह आजीवन अमिट रहती है। बच्चे पर माता–पिता तथा परिवार की कलह, झगड़ो और दुसरी हानि कारक बातों का अवसर पड़ता है। यही से वे अनुशासनहीनता कि शिक्षा पाते है। अतएव अभिभावको को सतर्क रहना चाहिए कि बच्चों के सामने ऐसा कोई कार्य न करे जो अशोभनीय हो, जिनका दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़े। 

जीवन की दूसरी पाठशाला शिक्षा–संस्था होती है। यहा विद्यार्थी अपनी जीवन रूपी यात्रा की तैयारी करता है। वह तैयारी जिस मात्रा में होगी जीवन यात्रा भी उतनी मात्रा में सुखद और संतोषजनक होती है। आजकल प्राय हर शिक्षा–संस्था में अध्यापकों के बीच गुटबाजी चलती है। वे अपने स्वार्थ के लिए छात्रों का दुरूपयोग करते हैं। इससे छात्रों में अनुशासन हीनता पैदा होती हैं और शैक्षणिक जगत दूषित होता है। चरित्रवान शिक्षक का छात्रों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अतएव शिक्षक स्वयं अनुशासित रहकर विद्यार्थी के हितों की रक्षा करे और विद्यार्थियों को उत्तम शिक्षा दे। वे अपने व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव छात्र पर डालें कि छात्र जीवन की सही दिशा में बढ़ने को विवश हो ।

शिक्षा–संस्थाओं के संचालको का भी इस कार्य में कम दायित्व नहीं है। अनुशासन स्थापित करने में उनका सहयोगी बनना आवश्यक है। संस्थाओं के कुप्रबंध का प्रभाव छात्रों पर निश्चित रूपसे पड़ता है। अगर किसी संस्था का प्रबंध मंडल व्यवस्था के प्रति उदासीन है तो उस संस्था में कुव्यवस्था का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में शिक्षकों और छात्रों में असन्तोष उत्पन्न होता है जिसका असर शिक्षा–संस्था पर पड़ता है। किसी किसी संस्था में एक एक कक्षा में साठ–साठ विद्यार्थी भर्ति कर लिये जाते हैं जहाँ उन्हें बैठने तक की जगह नहीं मिलती हैं। इसके अतिरिक्त जल, सफाई, अध्ययन की समुचित व्यवस्था न होने से भी अनुशासनहीनता पैदा होती है।

प्रायः देखा जाता है कि जिन शिक्षा–संस्थाओं में अच्छे अध्ययन–अध्यापन की व्यवस्था है वहा अनुशासनहीनता भी कम है। शिक्षण की अच्छी व्यवस्था होने से छात्र पढ़ाई–लिखाई में लगे रहते हैं। उन्हें दुसरी बातों पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता है। कहा भी गया है– “खाली दिमाग शैतान का अड्डा।” व्यस्तता विद्यार्थी के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त विद्यालय प्रबंधकों चाहिए कि वे छात्रों के पठन–पाठन की व्यवस्था के साथ उनके खेलकुद की भी उत्तम व्यवस्था करे। खेलकुद के द्वारा अनुशासन का पाठ पढ़ाया भी जा सकता है।

अनुशासनहीनता का एक प्रमुख कारण हमारी दोषपुर्ण शिक्षा–प्रणाली भी है। अंग्रेजो ने क्लर्क पैदा करने के लिए शिक्षा–प्रणाली का जन्म दिया था वही आज भी प्रचलित है। शिक्षा–संस्थाए आज बेकारी पैदा करने का कारखाना हो गयी है जहाँ से प्रति वर्ष लाखो युवक बेकार बनकर निकलते हैं। अतएव इस शिक्षा–प्रणाली को बदलना जरुरी है। हमें ऐसी व्यावहारिक शिक्षा की व्यावस्था करनी चाहिए जो जीविकोपार्जन में सहयोगी है। विद्यार्थी यह देखते हैं कि शिक्षा पाकर उन्हें दर दर की ठोकरे ही तो खाती हैं। ऐसी शिक्षा से क्या लाभ? यह भावना एक अन्तहीन निराश को जन्म देती है जिसके वलने विद्यार्थी कुण्ठित हो जाते हैं।

अतएव शिक्षा–व्यवस्थाएं की कमियों को दूर कर ऐसे वातावरण की सृष्टि करना है जो अनुशासन पैदा करने के अनुकूल हो। शिक्षक अभिभावक और संस्था–प्रबंधो के पारस्परिक सहयोग से ही बाताबरण तैयार हो सकता है। माता–पिता की सतर्कता, शिक्षक का चरित्र और ज्ञान, प्रबन्धको की सुव्यवस्था के आपसी सहयोग से इस स्थिति को बदला जा सकता है। शिक्षा–क्षेत्र की उदासीनता का एक कारण शिक्षकों का अल्पवेतन भोगी होना भी है। जिस देश का शिक्षक भरपेट भोजन के लिए तरपता हो, उस देश की उन्नति की कल्पना दिवास्वप्न है। अनुशासन के लम्बे–चोड़े वक्तव्य को छोड़कर इस यथार्थ पर निगाह डालना आवश्यक है तभी हम न केवल शिक्षा–संस्थाओं में अनुशासन कागम करने में समर्थ होंगे, अपूति जीवन के अन्य क्षेत्र में भी उसका विकास कर सकेंगे।

 11. महामानव महात्मा गांधी

भगवान कृष्ण ने गीता में कहाँ है कि जब–जब पृथ्वि पर अनाचार, अत्याचार, उत्पीड़न और शोषण का बोल–बोला होता है, मानवता कष्ट और अत्याचार से पीड़ित हो जाती है, तब–तब उसके उद्धार के लिए किसी–न–किसी महापुरुष का जन्म होता है। अंग्रेजो की दासता की कड़ी में हमारा देश जकड़ा हुआ था। भारतीय जनता उनके शोषण और अत्याचार से कराह रही थी। हमारे देश का धन विदेशों में चला जा रहा था। हम अपने ही घर में असहाय और निराश्रित थे। ऐसे ही संकट काल में विशव वन्धु महात्मा गांधी का आविर्भाव हुआ।

गांधीजी का जन्म सन 1869 ई० की दो अक्टूबर को पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ। आपके पिता का नाम करमचन्द गांधी और माता का नाम पुतलीबाई था। आपका पूरा नाम मोहनदास कर्मचन्द गांधी था। गांधीजी के माता–पिता धर्म पर अगाध विशवास रखते थे। इसका प्रभाव आप पर पड़ा। आपने प्रारम्भिक शिक्षा पोरबन्दर और राजकोट में पायी। आपने सन 1887 ई० में मेट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर के एक कालेज में प्रवेश किया। सन् 1891 ई० में विलायत से वैरिस्टर बन कर स्वदेश लौटे।

बैरिटर पास कर आप एक मुकदमे के सिलसिले में आपको आफ्रिका जाना पड़ा। वहा काले आदमियों के प्रति भेद–भाव और अपमानपूर्ण व्यवहार होता था। अंग्रेजो के इस अत्याचार और उत्पीडन मे आपका हृदय अत्यन्तः दुखी हुआ। आफ्रीका में रहनेवाली प्रवासी भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए आपने सत्याग्रह आन्दोलन शुरू करके अन्त में सफलता मिली और भारतीयों की प्रतिष्ठ की रक्षा हुई।

कुछ समय बाद गांधीजी फिर भारत लौट आये। यहा भी अंग्रेजों का अत्याचार देखकर उनके मन में आन्दोलन की भावना पैदा हुई। अपने देशवासियों के अधिकार के लिए सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया। थोड़े ही दिनों में आप कांग्रेस पार्टी के सर्वमान्य नेता बन गये। सन 1930 का नमक आन्दोलन अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है जो आपके नेतृत्व में किया गया। सन 1931 ई० में भारत के तत्कालीन गर्वनर लार्ड इर्विन और गांधीजी के बीच समझौता हुआ। इसके कारण आप इंलैंड की यात्रा की लेकिन विलायत से निराश होकर लौट आये। फिर आपने आन्दोलन शुरू करने कारण आपको जेल में डाल दिया। सन 1932 में ब्रिटिश सरकार का ‘पूट डालो और राज्य करो” घोषणा शुनकर गांधीजी आमरण अनशन प्रारम्भ किया। गांधीजी ने सन 1940 ई० में व्यक्तिगत आन्दोलन छोड़ा। सन 1942 में “भारत छोड़ो” का प्रस्ताव लेने के कारण अन्य नेताओं के साथ गांधीजी को गिरफतार कर लिये गये। इसके कारण देशव्यापी आन्दोलन छिड़ गया। इस आन्दोलन ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नींव हिला दी। देश भर में हजारों–हजार लोग जेल में डाल दिये गये। यद्यापि उपर से आन्दोलन दबा दिया गया, लेकिन भीतर ही भीतर एक गहरी चिनगारी मुलगती रही। सन् 1947 ई० के 15 अगस्ट को अंग्रेज भारत छोड़कर चले गये और भारत पराधीन से मुक्त हुआ।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता दिलाने के साथ गांधीजी ने अनेक सामाजिक कार्य किये। भारत की बहुमुखी उन्नति के लिए आर्थिक और सामाजिक मुक्ति की भी आवश्यकता है। भारत में प्रचलित वर्ण और जाति–भेद प्रथा के कारण हमारे समाज में अनेक बुराइयाँ आ गयी थी। हरिजन उद्धार के लिए उन्होंने वहुमुखी प्रयास किये।

गांधीजी का विशवास था कि भारतीय सभ्यता के विकास के लिए भारतीय भाषाओं की प्रगति आवश्यक है। वे हिन्दी को जन–सामान्य के लिए बोधगम्य बनाना जरूरी समझे थे। वे हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे।

आर्थिक प्रगति के लिए वे कुटीर–उद्योगो को प्रोत्साहित करना चाहते थे। उनका विचार था कि औद्योगीकरण और बड़े–बड़े कारखानों की स्थापना से शोषण को प्रोत्साहन मिलेगा। गांधीजी का चर्खा आन्दोलन छोटे–छोटे उद्योग का ही एक अंग था।

गांधीजी ने भारतवासीयों के हृदय में राष्ट्रीय चेतना पैदा की, उन्हें आत्मसम्मान का पाठ पढ़ाया, उन्हें मानवता की शिक्षा दी। हम भारतवासी आज जो भी हैं इसी महापुरूष के महान कार्य के कारण हैं। भौतिक उन्नति के साथ बापु ने हमें आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में भी अग्रसर किया। भौतिक उन्नति को वे मानवता विरोधी मानते थे। उनके लिए सच्चा मनुष्य आध्यात्मिक गुणो से हो बनता है। सत्य और अहिंसा उनके जीवन के चरम लक्ष्य थी।

हमारे लिए यह कलंक की बात है कि मानवता के इस प्रहरी राष्ट्र के अग्रदूत और आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ मानव की हत्या हमारे जैसे लोगों के द्वारा ही हुई। हमारे लिए 30 जनवरी 1948 ई० का दिन सबसे कंलकित दिन है जिस दिन तक एक जघन्य व्यक्ति ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। 

हमारे लिए सबसे दुर्भाग्य का दिन वह होगा जब हम पूज्य बापु को भूल जायेगा। आज लोग गांधीजी के सिद्धान्तों के पालन पर मौखिक रूप से बहुत बाते करते हैं, लेकिन उसके पालन पर कम ही लोग ध्यान देते है।

12. अपने स्कुल का वार्षिकोत्सव

प्रायः सभी विद्यालयों में वार्षिकोत्सव की परिपाटी चली आ रही है और प्रत्येक वर्ष प्रत्येक विद्यालय में यह वार्षिकोत्सव कभी–न–कभी अवश्य होता है। हमारे विद्यालय में यह उत्सव मार्च मास में बड़े धूमधाम से मनाया गया।

वार्षिकोत्सव के लिए कई दिन पूर्व से ही तैयारियाँ हो रही थी। पारितोषिक पाने वाले विद्यार्थियों का चुनाव प्रतियोगिता के आधार पर किया गया था। उत्तल–कुद, दौड़ एवं वाद–बिवाद की प्रतियोगिताए दो दिन पूर्व हो गयी थी । प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय और तृतीय आनेवाले छात्रों के नाम अंकित कर लिए गये थे। अन्तिम दिन वार्षिकोत्सव के लिए एक पण्डाल का निर्माण किया गया। विभिन्न रंगों के तोरणों एंव पताकाओं से पण्डाल सजाया गया। धुल आदि साफ कर सर्वत्र जल छिड़का गया। प्रवेश–द्वार पर शुभागमन लिखकर लटकाया गया। प्रवेश–द्वार से पण्डाल तक पाँवड़े बिछाये गये।

पण्डाल के भीतर सभापतिजी के बैठने के लिए सुन्दर कुर्सी और मेज मंच के बीच में लगायी गयी। अन्य आमन्त्रित व्यक्तियों के लिए भी ऊँचा मंच बनाया गया और कुर्सियाँ रखी गयी। महापुरूषों के चित्र पण्डाल की दीवारों पर लटकाये गये। सभापति का शिक्षा–मन्त्री ने ग्रहण किया।

विद्यार्थी, प्रधानाध्यापकजी और अन्य अध्यापकगण दो घण्टे पूर्व से ही आकर प्रबंध में जुट गये थे। प्रवेश–द्वार पर दो अध्यापक आमन्त्रित व्यक्तियों का स्वागत कर रहे थे। बालचर पण्डाल चारों और खड़े होकर शान्ति अपनाये रखने के लिए प्रयत्नशील थे। ठीक समय पर सभापतिजी का आगमन हुआ। उनके मोटर से उतरते ही बैण्ड जोर से बजने लगा। बालचरों ने उनको अपने टंग से नमस्कार किया। प्रधानाध्यापक ने सभापति को मंच पर ले जाकर निशिचत स्थान पर बैठाया। दो छात्रों के स्वागत गीत गाने पश्चात सभापतिजी के गले में मालाएँ पहनायी। पुनः राष्ट्रगीत गाया गया और उत्सव की कार्यवाही आरम्भ हुई।

प्रधानाध्यापक ने विद्यालय का संक्षिप्त इतिहास, आर्थिक दशा, परीक्षाफल, विद्यालय के शिक्षकों का संक्षिप्त परिचय आवश्यकताओं आदि का दिग्दर्शन कराया और सरकार तथा जनता से आर्थिक सहायता की अपील की।

इसके पशचात पारितोषिक वितरण आरम्भ हुआ। जो विद्यार्थी वार्षिक परीक्षा में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय आये थे, सर्वप्रथम उन्हें ही पुरस्कार दिये गये। सभापति ने प्रत्येक छात्र से पूरस्कार देने के बाद हाथ मिलाया। पुरस्कार “विजेताओं की प्रसन्नता अवर्णनीय थी। पुरस्कार न पानेवाले थोड़ा उदास दीखते थे।

पारितोषिक–वितरण समाप्त होने ही सभापतिजी ने अपना भाषण प्रारम्भ कर दिया। सर्वप्रथम उन्होंने विद्यालय के अधिकारियों को धन्यवाद दिया क्योंकि उन लोगों ने उन्हें सभापति पद पर आसीन किया था। उन्होंने पुरस्कार विजेताओं को साधुवाद दिया और अन्य छात्रो को आगामी परीक्षा के लिए अच्छी तरह से तैयारी करने की सलाह दी। सभापति ने अपने भाषण में अनुशासन पर विशेष जोर दिया। उन्होंने बताया कि शिक्षा में अनुशासन का महत्त्व बहुत अधिक है।

सभापतिजी के भाषण के पशचात प्रधानाध्यापकजी ने आगन्तुकों और सभापतिजी को धन्यवाद दिया, क्योंकि वे अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर अपना बहुमूल्य समय दे इस कार्य के लिए इतनी दूर से आये थे। धन्यवाद के बाद वहाँ तो समाप्त हो गयी थी कन्तु विद्यालय के विशाल कक्ष में सभापति आमन्त्रित व्यक्तियों के लिए जलपान का विशेष आयोजन था। अतः सभी उठकर वहाँ चल गये और सबने एक साथ बैठकर जलपान किया। इस तरह हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव बड़े उल्लास एवं हर्ष के साथ समाप्त. हुआ।

वार्षिकोत्सव से विद्यार्थी और विद्यालय दोनो को लाभ होता है। इससे विद्यालय की सर्वत्र प्रसिद्धि हो जाती है। जनता विद्यालय के कार्यों से अवगत होती है और बच्चों में उत्साह की भावना आती है। वे प्रोत्साहित होकर भविष्य में और भी पुरस्कार पाने के लिए सचेष्ट हो जाते हैं। वे मिल–जुलकर कार्य करना सीखते हैं। उनमें प्रबंन्ध–शक्ति का विकास होता है और उन्हें भावी नागरिक बनाने की प्राथमिक शिक्षा यहीं मिलती है। अतः वार्षिकोत्सव के कार्य ये छात्र, अभिभावक तथा शिक्षक सभी का सहयोग मिलना उचित है।

13. राष्ट्रभाषा का महत्त्व 

जिस भाषा से किसी राष्ट्र का काम–काज चलाया जाता है, उसे राष्ट्रभाषा कहते हैं। दुनिया के प्रत्येक स्वाधीन राष्ट्र की अपनी अपनी राष्ट्रभाषा है। जिस राष्ट्र या देश की अपनी राष्ट्रभाषा नहीं, वह देश कमजोर है, गूंगा है। प्रत्येक राष्ट्र के विभिन्न प्रान्तों की प्रांतिय या राज्यिक भाषा अलग है। उससे अपने अपने राज्य के काम काज चलाए जाते हैं। पर सारी भाषाओं एक सूत्र से बांधकर सारे राज्य और राष्ट्रों के काम–काज का माध्यम राष्ट्रभाषा ही है। भारतवर्ष में केन्द्रीय सरकार द्वारा स्वीकृत पन्द्रह राज्यिक भाषाएँ हैं। इस विशाल भारत के लोगों को एक सूत्र में बाँधने के लिए राज्यिक और केंद्रीय सरकारों के काम–काज संचालन के लिए राष्ट्रभाषा की जरूरत है।

राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण रखने के लिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता हमारे भारत में पहले महामानव महात्मा गांधी ने अनुभव किया था। उनके अथक परिश्रम के फलस्वरूप भारतीय सभी भाषाओं में से हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा बनाने का निशचय किया गया। क्योंकि भारत की सभी भाषाओं में हिन्दी आसान है। उत्तर भारत के विशाल भु–भाग के लोग हिन्दी समझते और बोलते हैं। अर्थात दुसरी भाषा की अपेक्षा हिन्दी बोलने वालों की संस्था अधिक है। हिन्दी भारत के सात प्रेदशों की राज्यिक भाषा है। अहिन्दी प्रान्तो के लोग भी आसानी से हिन्दी समझ सकते हैं। वह भारत के पैंतीस विशवविद्यालयों के शिक्षण का माध्यम भाषा है। हिन्दी में पौराणिक साहित्यिक भाषा संस्कृत की प्रधानता विद्यमान है। इसका साहित्य बड़ा विशाल है। इन गुणों के कारण ही हमारे देश की केन्द्रीय सरकार ने 1949 ई० के 14 सितम्बर में हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मर्यादा दी है। अब हिन्दी राज्यभाषा और राष्ट्रभाषा रूप में चल रही है। असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा आदि की तरह शैक्षिक संस्थाओं की और से इसका व्यापक प्रचार हो रहा है। आज विभिन्न प्रांतीय भाषी साहित्य के उत्कृष्ट काव्यों को हिन्दी में अनुवाद किया गया है। हिन्दी को विकसित रूप देने के लिए पारिभाषिक कोष, टेकनिकी शब्दवली और सेनाओं के कमान आदि हिन्दी में हीं दिये जाते हैं। आकाशवाणी तथा दुरदर्शन द्वारा हिन्दी का व्यापक प्रचार किया जा रहा है।

राष्ट्रभाषा का महत्त्व सर्वोपरी है। राष्ट्रभाषा के द्वारा ही हमारे देश की एकता संहति, राष्ट्रीयता आदि कायम हो सकती है। इसके माध्यम से लोगों को देश के एक कोने से दुसरे कोने तक आना जाना करने की सुविधा है। अतः हमें यदि राष्ट्र की उन्नति करना है, तो राष्ट्रभाषा की उन्नति करना अपरिहार्य है।

राष्ट्रभाषा की उन्नति प्रांतीय भाषाओं की उन्नति पर निर्भर करती है। प्रांतीय भाषा की उन्नति हो ये बिना राष्ट्रभाषा को अपने–अपने प्रांत में अपना काम चलाने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। तभी सभी प्रांत के लोग राष्ट्रभाषा की प्रगति के लिए कोशिश करेंगे और इसके फलस्वरूप राष्ट्रभाषा पत्र–फल–फुल से ज्योतिष्कार हो जायेगी।

राष्ट्रभाषा की सेवा राष्ट्र की सेवा है। इसके द्वारा ही देश के पिछड़े हुए लोग आगे बढ़ सकेंगे। दूसरी ओर सभी भारतीय भाषाओं का गठन एक–सा होगा। इसीलिए कोई विदेशी भाषा सीखने की अपेक्षा राष्ट्रभाषा हिन्दी सीखना कोई कठिन काम नहीं है। कोशिश करने पर लोग बहुत ही कम समय के अन्दर काम चलाने की हिन्दी सीख सकती है।

राष्ट्रभाषा की लिपि देवनागरि है। इस लिपि का प्रचलन भारतवर्ष में पूराने जमाने से होता आया है। प्रांतीय भाषाओं तथा संस्कृत का शब्द भंडार ही हिन्दी के शब्द भंडारों की बुनियाद है। एक राष्ट्र की कल्पना को कार्योंम्बित करने के लिए राष्ट्रभाषा की सेवा करना पुनीत कर्तव्य है। यदि हम अब भी राष्ट्रभाषा नहीं सीखने या सीखना नहीं चाहते, तो हमें समय पर अपने प्राप्य से वंचित होना पड़ेगा। आज हिन्दी का प्रचार अन्तःराष्ट्रीय स्तर पर भी हो रहा है। इसलिए हमें आग्रह के साथ इनकी उन्नति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

14. रंगाली बिहु

आरंम्भनी: रंगाली बिहु चैत की अंतिम तिथि में मनाया जाता है। ये विहु सात दिन तक मनाया जाता है। प्रथम विहु को गरुविहु कहा जाता है। दूसरी विहुके दिन बढ़े को छोटे प्रणाम करते है।

वर्णन: बिहु हमारे जातीय उत्सव है; विहु तीन है– रंगली, भोगाली और कंगाली। ये तीनो बिहु में रंगाली प्रधान है। असम के कोने कोने में बिहु मनाए जाते हैं। आज के बिहु शहर में खुव धूमधाम से मनाया जाता है। ठीक उसी तरह गाँव वाले भी रंग का बिहु रंगाली बिहु को मनाया करता है। खुलेआम तौर पर बिहु मंच बना कर बिहु नाचते और गाते है।

गरु बिहु में गरु को नहला धोकर नया पगहा पहल्ला देते हैं। ठिक उसी तरह गाँव वाले गाते हैं–

लोकी खा बेगन खा,

दिन दिन बढ़ते जा,

वाप छोटा माँ छोटी

दिन दिन बढ़ते जा।

इसके अलावा मनुष्य नहाधोकर छोटे बड़े को प्रणाम करते है। बड़े छोटे को आशीर्वाद देते है। इस रंगाली बिहु में प्रत्येक असमीया के घर घर मे बिहु मनाकर तरह तरह के चीज खाते और साथ साथ नाचते और गाते है। बिहु असम के जन समाज का एक जातीय उत्सव है। इसलिए इन बिहुओं को वापनि शासन कहा जाता है। आज के गाँव वालो ने धुले मैदान में विहु धुचरो डल बना कर लड़का लड़की नाचते और गाते हैं। ठीक उसी तरह शहर में बिहु मंच वनाकर गायक गायिका को उसे बिहु  मंच पर गाना गाने के लिए बुलाया जाता है। वह देखने लायक होते हैं।

उपसंहार: अन्त में यही कहा जा सकता है कि बिहु उत्सव असम एक जातीय उत्सव के है। इस बिहु के जरिये लड़के लड़कियों का मन के मिलन से शादी आदि हो जाते है। जैसें भी हो बिहु असम का वापती शासन माना जाता हैं। बिहु का आनन्द कभी भी भूला नही जा सकती। मूलतः बिहु के जरिये असम के जन जीवन का जो कला संस्कृति है इसको अच्छी तरह बनाए रखती है।

15. स्वतन्त्रता दिवस

“उत्सव प्रियाः मानवाः”। अर्थात् मानव उत्सव प्रिय होते हैं। महाकवि कालिदास का यह कथन मनुष्य के स्वभाव पर पूणतः चरितार्थ होता है। क्योंकि उत्सव से हमारे जीवन से नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द की वृद्धि होती है। हमें पर्वो से नई प्रेरणा प्राप्त होती है।

हमारे देश में स्वतंत्रता दिवस प्रति वर्ष 15 अगस्त को मानाया जाता है। इसे स्वाधीनता दिवस भी कहा जाता है। आज के दिन सन् 1947 में दो सौ वर्षो की दासता की जंजीरे तोड़कर हमारा देश स्वाधीन हुआ था। हमें यह स्वतंत्रता अंग्रेजों ने उदारतापूर्वक ऐसे ही भेंट या दान मे नहीं दी, बल्कि इसके लिए भारतवर्सियों को अंग्रेज शासको के विरुद्ध लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा। जहाँ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों में अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन चलाकर लाठी, गोली खाई और कठोर कारावास के दंड झेले; वही तात्याँ टोपी, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु, जैसे अनेक महान क्रांतिकरियों ने भारत माता को आजाद कराने के लिए फाँसी के फंदों को हँसते–हँसते चूम लिया। तब कही जाकर अत्याचारी अंग्रेज विवश होकर देश छोड़कर भागे और देश स्वाधीन हुआ।

इस दिन संपूर्ण देश में स्वतंत्रता दिवस हर्षोल्लास एवं धूमधाम से मनाया जाता है। विद्यालयों एवं सरकारी कार्यालयों में राष्ट्र ध्वज फहराया जाता है। विद्यार्थियों द्वारा प्रभात फेरियाँ निकाली जाती है। बच्चों के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं का की जाती है। देश की आजादी के लिए अपने प्राण निछावर करने वाले शहीदों के बलिदान को याद करते हुए आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने की संपूर्ण राष्ट्र शपथ लेता है। उसदिन राष्ट्र की राजधानी दिल्ली में विशेष उत्सव मानाया जाता है। इस दिन की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम संदेश प्रचारित करते हैं। 15 अगस्त को प्रातः लाल किले की प्राचीर से ध्वजारोहण के उपरांत प्रधानमन्त्री राष्ट्र को संबोधित करते हैं।

इन पर्वों से राष्ट्रीय जीवन में नई चेतना उत्साह और प्रेरणा उत्पन्न होती हैं। इनमें एक ओर जहाँ जीवन की नीरसता व निराशा समाप्त होती है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्र के विविध क्षेत्रों में प्रगति करने की तथा अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार करने का अवसर मिलता है। देश को समृद्धशाली बनाने, राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने देशवासियों में प्रेम तथा भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए हर एक नागरिक संकल्प करता है।

16. असम की प्रमुख समस्याएँ

आज संसार के सामने अनेक छोटी–बड़ी समस्याएँ हैं। प्रत्येक देश तथा राज्य उनके समाधान के लिए अपने–अपने ढंग से जुटा है ताकि विकास में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न न हो। इनमें बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या काफी गंभीर है। इसके समाधान में अधिकतम देश या राज्य जी–जान से लगे है। तेजी मे बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उनकी विकास और प्रगति की सारी योजनाएँ विफल होती जा रही हैं। असम में तो जनसंख्या वृद्धि की समस्या उसके पथ का सबसे बड़ा अवरोध बन गई है।

जनसंख्या वृद्धि की समस्या अनेक अन्य समस्याओं को उत्पन्न करती है। प्रत्येक व्यक्ति की मुख्य आवश्यकता है– भोजन, वस्त्र और आवास। आज अनेक देशो में लाखों व्यक्तियों को भर पेट भोजन नही मलता, तन ढँकने को कपड़े नहीं मिलते और वे बिना घर बार के खुले आसमान के नीचे जीवन यापन करते हैं।

स्वतंत्रता मिलने के बाद असम तीव्र क्रान्ति से कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में विकास के पथ पर अग्रसर हुआ। हर क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई। आज कृषि योग्य देश की लगभग सारी भूमि पर खेती हो रही है। सिंचाई के लिए नदीयों पर भाकड़ा नंगल, दामोदर घाटी तथा असम में पहुमारा और कालदिय नदी के नदी योजना आदि अनेक बाँध बन चुके है। किसानों को पंम्पिंग सेट और नलकूप उपलब्ध कराए गए हैं। प्रतिवर्ष सिंचाई व्यवस्था के लिए देश का करोड़ो रूपया व्यय हो रहा है। वैज्ञानिक खादो के अनेक कारखाने खोले जा चुके हैं। किसान ट्रेक्टर, हैरो आदि वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग कर रहे है। वैज्ञानिक ढंग से खेती करने का वे प्रशिक्षण ले चुके है। प्रगति के इन प्रयाशों के परिणामस्वरूप हमारे कृषि उत्पादन में भी बड़ी वृद्धि हुई है। किंतु दूध, घी, तिलहन, दाल कपास आदि की कमी हम अव भी अनुभव कर रहे है।

इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि अनेक समस्याओं के मूल मे विद्यमान है। इसलिए आज सारी जनता को एकगुट होकर इस पर नियंत्रण करने का प्रयास करना है। जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण को हमें जन–आन्दोलन का रूप देना है। इसलिए हमारी सरकार ने परिवार कल्याण की योजना चलाई है। इस योजना को सफल बनाने में सहयोग प्रदान करना भारत तथा असम के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है। सभी राज्यों में लोगों को जानकारी देने और जागरूक बनाने के उद्देश्य से प्रशिक्षण केन्द्र खोले गए हैं और अव सभी गावों में प्रशिक्षित कर्मचारी उपलब्ध है। इस योजना से देश को लाभ हुआ है। हमारी जनसंख्या वृद्धि कुछ हद तक घटी है। पर अभी तक सहयोग प्राप्त नहीं हो सका है।

हमारे असम में उग्रपंथी का समावेश हुआ, यही एक ज्वलन्त समस्या है। अकेले सरकार द्वारा ये इसका समाधान नही हो सकती। सरकार के साथ जनसाधारण की अच्छी तरह लगने से इसका समाधान हो सकता है। इसलिए असम का हर नागरिक उस समस्या के लिए एकत्रित होकर सरकार को वलपूर्वक इस समस्या को हल करने के लिए सहयोग देना जरुरी है। अन्य एक समस्या है वहिरागत। भारत कें अन्य राज्य की तुलना यह असम राज्य में यह वहिरागत की समस्या प्रवल रूप धारण करता जा रहा है।

जनसंख्या वृद्धि एक प्रमुख समस्या है, और जनसंख्या का परिसीमित संख्या इस युग का प्रमुख धर्म है। यदि हम अपना, अपने परिवार का, अपने देश तथा राज्य का कल्याण करना चाहते हैं, तो हमें इस धर्म का पाल करना ही होगा। इस धर्म का पालन ही आज सच्ची देशभक्ति है।

17. समाज और साहित्य

साहित्यकार मस्तिष्क, बुद्धि और हृदय से संपन्न एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से अलग हो नहीं सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति का संपूर्ण विषय समाज, उसकी समस्याएँ, मानव जीवन और जीवन के मूल्य हैं, जिनमें वह साँस लेता है। जब कभी उसे घुटन की अनुभूति होती है, उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में प्रकट हो जाती है। समाज से उसका यह अनुभूति उसे साहित्य सृजन की प्रेरणा देते हैं और तभी उसके साहित्य को समाज स्वीकार भी करता है।

सामाजिक प्रभाव और दवाव की उपेक्षा कर साहित्यकार एक कदम भी आगे नहीं चल सकता और यदि चलता भी है तो आवश्यक नहीं कि साहित्य पर समाज का यह प्रभाव सदैव अनुकूल हो, वह प्रतिकूल भी हो सकता है। कवीर के साहित्य तथा प्रेमचंद के साहित्य के अध्ययन से यही बात स्पष्ट हो जाते है। कबीर ने अपने समय के धार्मिक बाह्याडंबरों, समाजिक कुप्रवृत्तियों, एवं खोखली मान्यताओं के विरोध में अपना स्वर बुलंद किया। निराला के साहित्य में ही नहीं उनके व्यक्तिगत जीवन में भी यही संघर्ष बराबर बना रहा। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों मे सर्वत्र किसी न किसी सामाजिक समस्या के प्रति गहरी संवेदनता दिखाई देती है। अस्तु साहित्यकार अपने युग तथा समाज के प्रभाव से अपने को अलग रचना भी चाहे तो कदापि नहीं देख सकता।

युग बदल गया और देश अंग्रेजों के चंगुल में जा फंसा। सदियों से पराधीन देशवासियों में निराशा फैल गयी। विदेशियों की दमन नीति बढ़ने लगी। साहित्य मौन न रह सका। भारतेंदु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुक्त गुप्त, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, मैथिली शरण गुप्ता, जैसे प्रबुद्ध साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से निराशापूर्ण भारतीयों में एक नए विश्वास और नई चेतना को जागृत करते हुए समय की पुकार सुनी। माखनलाल चतुर्वेदी की निम्न लिखित पंक्तियों ने न जाने कितनी देशभक्त नवयुवको की अपनी मातृभूमि के चरणो पर शोश चढ़ाने की प्रेरणा दी।

“मुझे तोड़ लेना बनमाली,

उस पथ पर तुम देना फेंक।

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने।

जिस पथ पर जाने वीर अनेक ।।”

इन पंक्तियों में पराधीन भारतीय समाज की दबी–कुचली आकांशाओं को भी अभिव्यक्ति मिली है। गुलामी की श्रृंखला तोड़ने के लिए व्यग्र भारत की आकांक्षा का चित्र यही प्रस्तुत किया गया है।

किसी भी देश और जाति को संस्कृतिक चेतना का स्पष्ट चित्र उस देश अथवा जाति में बोली जाने वाली भाषा के साहित्य में परिलक्षित होता है, क्योंकि समाज और साहित्य एक–दूसरे से अभिन्न है। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी संभव नहीं है। रामायण, महाभारत, रघुवंशम्, शिशुपाल वध, रामचरितमानस, पदमावत, साकेत, कामपनी, गोदान आदि इसके ज्वलन्त प्रमाण है। साहित्यकार युग का चित्रकार होती है। उसके साहित्य में अपने समाज का जीवन स्पंदन विद्यमान रहता है। इसी अर्थ में वह उसका दर्पण होता है।

18. ‘अपने प्रिय कवि’

कबीर दास के जन्म के संबंध में अनेक जन श्रुतियाँ प्रचलित है। उनकी जन्मदायिनी ने जन्मते ही उन्हे काशी के लहर तारा तालाब के पास छोड़ दिया था। जुलाहा दंम्पति नीमा और नीरु ने उस शिशु को उठकर उसका पालन–पोषण किया। कबीर की जन्म सन 1446 वि. सं० काशी में हुआ था लेकिन उनकी मृत्यु 1575 वि० सं० मगहर में हुई।

कबीर की विधिवत् शिक्षा नहीं हुई थी। संसर्ग और आत्मचिंतन द्वारा ही उन्होंने ज्ञान–अर्जन किया था। उन्होंने पर्याप्त भ्रमण भी किया था।

कबीर भक्त और समाज सुधारक थे। उनका वाणी था प्रत्येक प्राणी परमात्मा का ही अंश है। इसलिए कोई बड़ा या छोटा नही है।

जाति–पाति का भेद भाव वे नहीं मानते थे। धर्म के नाम पर ऊँच–नीच का भेद करने को इन्होंने खोरी खोटी सुनाई।

अनपढ़ कबीरदास की वाणियों को उनके शिष्यों ने बाद में लिपिवद्ध किया। आपकी वाणियों का संग्रह बीजक नाम से प्रसिद्ध है। उनके तीन भाग है– साखी, सबद और रमैनी। रमैनी और साखी गेय पद हैं। कबीर

की रचनाओं की भाषा ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, खडीबोली, अरबी, फारसी आदि के शब्द–भंडार से मिलकर बनी ‘सधुक्कडी’ भाषा है।

भाषा की सरलता तथा भावों की सच्चाई की दृष्टि से उनकी रचनाएँ अनुपम है। जनभाषा में जनहित की शिक्षा–दीक्षा द्वारा समाज को पवित्र और उच्च बनाने वाले महान साधको में उसका स्थान अतुलनीय है। किसी ने सही कहा है–

तत्त तत्त सो अधिरा कहिगा कटवऊ कहोसि अनुठी।

बची खूची सो जोलहा कहिगा, और–कही सो झूठी। 

हिन्दुओं में प्रचलित वर्णभेद की कुरीति और उसके आधार पर उच्च वर्णों द्वारा निम्न वर्णों पर हो रहे अत्याचारो का विरोध सिद्ध और नाथ साधको बहुत पहले से करते आ रहे थे। उसी की परम्परा में कबीर आदि संत कवि सामाजिक विद्रोह का नया और सशक्त स्वर फुँकते सामाजिक क्षेत्र में उतरे और पद रचनां की। कबीरदास ने सभी प्रकार के सामाजिक और धार्मिक अनाचार और मिथ्या आडम्बर के विरोधी थे। जातिपाति के बन्धनो और भेद–भावो को नही मानते थे। गुरु को ईश्वर के बराबर समझते थे। ये धर्म के उभयस्वरुप को स्वीकार करते थे, जिसमे मानवमात्र को सम्मानपूर्ण स्थान मिल सके। इसी कारण इनकी भाषा को “सधुक्कड़ी” अर्थात चाहो और घुमने फिरनेवाले साधुओं की भाषा कहा जाता है। उपदेश प्रधान होने के कारण इनके साहित्य में काव्य सौन्दर्य और सरसता का कुछ अभाव है। इन्होने ज्यादातर दोहें और साखी कवितायें लिखी। प्रभाव और भाषा विकाश की दृष्टि से इनका महत्व बहुत अधिक है।

19. ‘दूरदर्शन’

ता० 25 जनवरी सन 1926 को इंगलैण्ड में एक इंजीनियर जौन वेयर्द ने रायल इन्सटीटूट के सदस्यो के सामने टेलिविजन का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। इस प्रयोग में उसने कठपुतली के चेहेरे का, चित्र रेडियो को तरंगो की सहायता से बगल वाले कमरे में बैठे हुए वैज्ञानिको के सामने प्रदर्शन किया। विज्ञान के लिए यह एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण घटना थी। मानव इतिहास में आज के दिन पहली बार दूरदर्शन संभव हो सका था। प्राचीन काल से लेकर आज तक लोगो ने दूरदर्शन की कल्पनाएँ की है; किन्तु इस कल्पना को कार्यरूप में परिणत करने को श्रेय आधुनिक युग में ही मिल सका, सैंकड़ो हजारों वर्ष के स्वप्र को जन बेयड ने सत्य कर दिखलाया।

टेलिविजन द्वारा घर बैठे हम दूर की घटनाओं का सामने के पर्दे पर अवलोकन करते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस तरह से रेडियों सेट द्वारा हजारों मील दूर का गाना सुनने में हम समर्थ होते हैं।

उद्योग–व्यवस्था के क्षेत्र में टेलीविजन महत्वपूर्ण योग दे रहे हैं। कुछ दिन पहले अमेरिका की एक औद्योगिक प्रदर्शनी में दिखलाया कि इंजीनयर भारी बोझ उठानेवाले त्रेन परिचालन कर सकता है। यद्यपि त्रेन इजीनियर की दृष्टि से परे रहता है; किन्तु त्रेन का चित्र टेलीविजन यन्त्र के पर्दे पर हर क्षण रहता है। अतः दूर बैठा हुआ इंजीनियर कलपुर्जों की सहायता से त्रेन का समुचित रूप में परिचालन करने से समर्थ होता है। 

इस ढंग से टेलीविजन यंत्र द्वारा अतुल जलराशि के नीचे पाये जाने वाले संपत्ति तथा जीवों के चलचित्र भी सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। जीव–वैज्ञानिकों का कहना है कि टेलीविजन यंत्र द्वारा गहरे जल मे पाये जाने वाले जीवो तथा पौधो के वारे में वे शीघ्र ही अनेक महत्वपूर्ण वातो की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

टेलिविजन द्वारा रंगीन वस्तुओं के चित्र भी उनके स्वाभाविक रंग में प्राप्त करने में प्रायः सफल हो चुके है। और अब रंगीन टेलीविजन सेटो का निर्माण व्यापक ढंग से हो रहा है तथा इसमें अनेक महत्वपूर्ण

सम्भवनाएँ निहित है। उदाहरण के लिए शल्यचिकित्सा में अर्जन जिन शरीरांग का आपरेशन करता है उनका टेलीविजन चित्र ठीक स्वाभाविक रंग में ही टेलिविजन द्वारा प्राप्त किये जा रहे हैं।

20. श्री श्री शंकरदेव

श्रीमंत शंकरदेव असम के एक महापुरुष थे। असम के नगाँव जिले के बरदोवा के नजदीक आलिपुखुरी नामक गाँव में सन् 1449 में उनके जन्म हुये थे। पिता का नाम था कुसुंबर भूंजा और मातृदेवी की नाम थी सत्यसन्ध्या । शंकरदेव के जन्म के थोड़े ही दिनों के बाद मातृदेवी की देहांत हुई थी। तब उनको दादी ने पाल पोषण की। 12 वर्ष तक शंकरदेव बड़ा नटखट था। 12 वर्ष के बाद दादी ने उनको गुरु महेन्द्र कंदनी के पाठशाला में भर्ती होने के बाद शंकरदेव ने बड़ा ध्यान से पढ़ने लगा। थोड़े ही दिनों में वे चार वेद, चौदह शास्त्रों और अट्ठारह पुराणों के ज्ञान प्राप्त करके सभी को चमक लगाये।

कुसुंबर भूंजा के देहांत होने के बाद सभी ज्ञाति–कुटुंब मिलकर शंकर को भूंजा विषय बाब दिये थे। विषय–संसार चलाने के लिए सूर्यवती स्वर्गगामी हुई। तब बिषय–संसार के प्रति शंकर को बिराग हुआ। मनु को हरि जमाई के साथ सादी होने के बाद चाचा जी को विषय बाब समझा कर उन्होंने बारह वर्ष के लिए तीर्थ पर्यटन में गये। गया, काशी, मथुरा, वृन्दावन आदि तीर्थओं घुम ने के वाद उनको बहुत ज्ञान प्राप्त हुए। ये ज्ञान को लेकर वे अपना देश लौट आये और उस ज्ञान को अपना प्रतिभा या ज्ञान से मिलाकर असम में “एकशरण भागवती” धर्म प्रचार किये थे। क्रमश भ्रष्टाचार में पतित होने वाले समाज को सुधारने के लिए महापुरुष श्री शंकरदेव ने अपने शिष्यों के साथ असम के एक ओर से दूसरे और तक भ्रमण करते हुए सत्र और नामघर प्रतिष्ठा करते थे। साथ लोगों को धर्म की शिक्षा देते थे। उन्होंने कीर्तन, दशम आदि धर्म ग्रन्थों प्रणयण करके सत्र और नामघरों में लोगों के साथ ज्ञान चर्चा की व्याख्या करते थे। धर्म प्रचार करना उनका प्रधान लक्ष था। उनके विचार यह था कि धर्म प्रचार में नाटक सबसे फलदायक उपाय होता हैं। इसलिए उन्होंने नाटक भी रचना करते थे। चिह्न यात्रा, रामविजय, केलिगोपाल, पत्नी प्रसाद, रुक्मिणी–हरण और पारिजात हरण आदि उनके रचित नाटक थे। ये नाटकों को अंकियाँ नाटक कहे जाते हैं। क्योंकि सुविधा रहने पर भी इन नाटकों को अंकों में विभाजन नहीं किया गया। एक ही अंक में प्रतिपाद्य विषय भावना के रूप में दिखाया गया।

श्री शंकरदेव सिर्फ धर्म प्रचारक ही नहीं थे। वे एक गायक, अभिनेता, नाट्यकार और एक बड़ा साहित्यिक थे। नाटक में श्री शंकरदेव ने ब्रजबुली भाषा व्यवहार करते थे। नाटक के ये गद्य भाषा ही असमीया भाषा की प्रथम गद्य भाषा होती है। इसलिए उनकी ही असमीया गद्य भाषा की जनक कहा जाता है। श्रीशंकरदेव ने असमीया जाति, भाषा, धर्म और संस्कृति सभी को सुदृढ़ भेटिपर प्रतिस्थापित किये। महापुरुष के जीवन कहानी एक ही लेख में समाप्त करना संभव नहीं है। असमीया लोगों ने श्रीशंकरदेव को कभी भूल न पाये।

“एक देव एक सेव एक बिने नहीं केव”– ये उन महापुरुष के प्रमुख वाणी थे। उनके निर्देशित पथ से चलने पर कभी किसी को दुविधा नहीं होंगे। शैनसे काल बिताने के लिये सभी को महापुरुष को निर्दय मानना चाहिए।

21. पुस्तकालय

लोगों के अध्ययन के लिए श्रृंखलित भाव से मजूत रखा हुआ विविध ग्रन्यों के भंडार को पुस्तकालय कहा जाता है। ज्ञान विकास और विस्तार करने में पुस्तकालय हमें सहारा देते हैं। इसलिए पुस्तकालय एक प्रयोजनीय अनुष्ठान होता है।

व्यक्तिगत, आनुष्ठानिक, जनगण के, महकुमा, जिला, राज्यिक, केन्द्रिय चरकार आदि विविध प्रकारों के पुस्तकालय होते हैं। ज्ञान पिपासु और अध्ययन के तुरन्त पियासी कोई–कोई पंडित व्यक्तियों ने व्यक्तिगत पुस्तकालय बना लेते है। असम के प्रख्यात पंडित कृष्णकांत सन्दिके ऐसा हो व्यक्तिगत पुस्तकालय बनानेवाला महान पुरूष थे। वे स्वर्ग सिधारने के पहले यह पुस्तकालय को गुवाहाटी विश्वविद्यालय का हिफाजत में अर्पित किये।

स्कूल, कॉलेज आदि में रखना पुस्तकालय को आनुष्ठानिक पुस्तकालय कहा जाता है। ऐसे पुस्तकालयों में पाठ्य पुस्तकों से संबंधित पुस्तक ही अधिकतर रखा जाता है। इसके अलावा महकुमा, जिला, राज्यिक अथवा केन्द्रिय पुस्तकालय से भी कोई पाठक पुस्तक रखते हैं। महकुमा, जिला अथवा केन्द्रिय पुस्तकालय से जो कोई पाठक पुस्तक पढ़ सकते हैं।

हर प्रकार के पुस्तकालयों के संचालन करने के लिए एक समिति होते हैं। वे पाठकों को पुस्तकें देने के लिए कोई नियम बना लेते हैं। कोई–कोई पुस्तकालय में नीतिगत पाठक होकर नाम भर्ती करने पर ही पुस्तक पढ़ सकते हैं। पढ़ने के लिए लिया हुआ पुस्तकों को अच्छी तरह लोटा देना परते हैं। समय पर पुस्तक नहीं लोटाने से या पुस्तक का कोई क्षति होने से जुर्माना भरना पढ़ता हैं। हर पाठक इन नियमों को मानना पढ़ते हैं। पुस्तकालय से पाठकों को खिसकर पुस्तक देने में पुस्तक भंडारी को सहारा देने के लिए सहायक कर्मचारी होते हैं। आजकल हर एक बड़े चहरो में चरकार की ओर सार्वजनिक पुस्तकालय खुले जाते हैं।

पुस्तकालय के धन भण्डार व्यक्ति, जनगण अथवा चरकारी अनुदान या सहायता से गठित होते हैं। पाठकों के नाम भर्ती और माचुलों से उठाया पुँजि या भंडार के एक सामान्य अंश होते हैं। सरकार की ओर से पुस्तकालय स्थापन करने के बाद जनगण के द्वारा स्थापित और शिक्षानुस्थानों के पुस्तकालयों को समय समय पर आर्थिक सहारा देते हैं। पुस्तकालय से हम मन चाहे पुस्तकों चुन कर पढ़ सकते हैं।

हमारे लिए पुस्तकालयों के उपकारिता बहुत होते हैं। हम सभी पुस्तकों को खरीद नहीं सकते हैं। इन पुस्तकों को हम पुस्तकालय से पढ़ सकते हैं। पुस्तकालयों ने आदमियों के बीच अध्ययणशीलता बढ़ाते हैं।

लोगों ने पुस्तकालय के जड़िये शिक्षित अध्ययन का अभ्यास करना चाहिए। अध्ययन ज्ञान बढ़ाते हैं। हर प्रकार के पुस्तकालयों ने पाठकों के बोच अध्ययनशीलता वृद्धि करने में सहारा दे सकते हैं। इसमें पाठकों के आग्रह अधिक होना चाहिए। क्योंकि शिक्षा बिना किसी व्यक्ति या देश की उन्नति कभी नहीं हो सकती है। आमतौर में हम यही कह सकते हैं कि आनुष्ठानिक शिक्षानुस्थानों में से पुस्तकालय झाक है। दो से एक अनुष्ठान की सर्वांगीन उन्नति के लिये हमें हमेशा गहरी नींव डालना चाहिए।

Leave a Reply

error: Content is protected !!
Scroll to Top