Class 12 Hindi MIL Chapter 15 शिरीष के फूल

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Class 12 Hindi MIL Chapter 15 शिरीष के फूल

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शिरीष के फूल

आरोह: गद्य खंड

प्रश्नोत्तर:

1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है? 

उत्तर: लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत की तरह माना है। इसका कारण यह है कि जब सारी दुनिया गरमी से त्रस्त तथा सारा वातावरण उमस एवं लू से त्राहि-त्राहि कर रहा होता है। मनुष्य जब इस भयानक गर्मी से बचने का हर संभव प्रयास करता है। जेठ की जलती धूप में जब धरती अग्निकुंड़ बन जाती है तथा लू से हृदय सूखने लगता हैं तब शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा होता है। जिसप्रकार अवधूत को आँधी, लू और गरमी की प्रचंड़ता विचलीत नहीं कर सकती हैं। ठीक उसी प्रकार शिरीष भी आँधी, लू और गरमी की प्रचंड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौन्दर्य विखेरता रहता है। दुख हो या सुख वह कभी घर नहीं मानता।

2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है – प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

उतर: लेखक कहते हैं कि हृदय को कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है। लेखक कहते हैं, कि हमारे देश के ऊपर से जो मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बपडंर बह गया है, उसके भीतर स्थिर रहना कठिन है। परन्तु शिरीष भी गाँधी जी की ही भाँति स्थिर रह सका है। जेठ की चिलचिलाती धूप में जब धरती सूख जाती हैं, तब शिरीष कोमल फूलों से लदा होता हैं। लेखक कहते हैं कि शिरीष वायुमंडल से सर खीचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका हैं। ठीक उसी तरह जिसतरह गाँधी जी नें वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और कटोर हो सके थे।

3. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजोविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।

उत्तरः शिरीष आँधी, लू और गरमी की प्रचड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौन्दर्य विखेरेते रहते है। इन कोमल पुष्पों के जरिए मानों शिरीष यह संदेश देना चाहत हैं कि कोलाहल व संधर्ष भरी जीवन स्थितियों में अविचल रह कर मनुष्य जिजोविषु बने । शिरीश के माध्यम से लेखक मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है।

4. हाय, वह अवधूत आज कहाँ है। एसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की और संकेत किया है? कैसे?

उत्तरः त्विवेदी जी ने देह-बल के ऊपर आत्मबल का महतव सिद्ध करने वाली इतिहास – विभूति गाँधीजी को याद किया हैं। वर्तमान समय में गाँधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से त्विवेदी जी कसमसा उठते हैं। वर्तमान समय में देश में मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का जो माहौल बना हुआ हैं, उससे सामना करने के लिए देह बल की नही आत्मबल की आवश्यकता हैं। वर्तमान परिस्थिती से लड़ने के लिए हमें गाँधीवादी की ज मूल्यों की आवश्यकता है।

5. कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर पज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य- कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया हैं। विस्तारपूर्वक समझाएँ।

उत्तरः त्विवेदी जी के अनुसार योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि की एकमात्र शर्त होती हैं। लेखक कहते हैं, केवल तुक जोड़ लेने या हन्द बना लेने से कवि या साहित्यकार नहीं हो सकता है, जब तक अनासक्त योगो की स्थिरता और विदग्ध प्रेमीका सा हृदय कवि का न हो तब तक सृकव नहीं कहला सकता हैं।

6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए स्री है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

उत्तरः गतिशीलता जीवन के लिए अनिवार्य है। दार्घजीवी बनने के लिए आवश्यक है अपने व्यवहार में जाये जड़ता छोड़कर नित बदल रही. थतियों में निरंतर अपनी गतिशीलता को बनाए रखना। जो व्यक्ति जड़ता को अपनाकर एक स्थान पर स्थिर बने रहते है और यह समझते है कि सर्वग्रासी काल की मार से बच जाएंगे वे मूर्ख हैं। मूर्ख समझते हैं कि देर तक अगर किसी स्थान पर बने रहे तो महाकालदेवता की आँख बच जाएँगे। महाकाल देवता र समय कोड़े चला रहे है, जिनसे जीर्ण और दुर्बल नही बच पा रहे है। परन्तु जो हिलते-डुलते रहते हैं, स्थान परिवर्तन करते अर्थात जो जीवन में गतिशीलता लाते है, जिनके प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी हैं, वे दीर्घजीवी हो सकते है।

7. आशय स्पष्ट कीजिए:

(क) दुरतं प्रामधारा और सर्वत्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते है कि जहाँ बने है, वही देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। भोले है. वे। हिलते-डुलते रहों, स्थान बदलते रहो, आगे की और मुँह किए ररो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।

उत्तर: दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष हमेषा चलते रहता है। अतः गतिशीलता दीर्घजीवी होने का एकमात्र शर्त हैं। कालदेवता की आँखो से बच पाना बहुत मुश्किल है। मूर्ख समझते हैं, देर तक अगर एक स्थान पर बने रहे तो वो सर्वग्रासी काल की मार से बच जायेंगे। परन्तु वे भोले हैं। सच तो यह है हिलते डुलते रहने पर, स्थान वदलते रहने पर इस मार से बचा जा सकता हैं। जिनमें प्राण्डण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी हैं, जो सदैब आगे की और मुहं किए रहते हैं, वहीं इस कोड़े की मार से बच जाते हैं। तथा दीर्घजीवी बन जाते हैं।

(ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए- कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? …………. में कहता हूं कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।

उत्तर: द्विवेदी जी ने सत्कवि के लक्षण की और संकेत किया हैं। वहीं हृदय, मन एक अन्तर्भेदी कवि हो सकता है जो आसक्ति के बंधनों को तिलांजलि दे चुका हो और बिल्कुल अनासक दी गया हो। उसका मन, वचन और कर्म पूरी तरह फक्कड़पन को अपना चुका हो। उसकी काल्पनिक उड़ाने ही वह स्तर प्राप्त कर सकती दे तो किसी सफल कवि के लिए न्यायमत दुटा सकती है। आशक्ति के घेरे से बाहर दिल से फक्कड़ मस्तमौला कवि ही साहित्य और समाज को वह विधि दे सकता है जो सदियों तक अनुपम और नवीन बना रह सकता है। दूसरी और जो कवि सदैव अपने ही साहित्यिक कार्यो का ही मूल्यांकन करने में ही उलझा रहे, वह सरी अर्थ में कभी कवि नहीं बन सकते। समाज और साहित्य उसने किसी प्रकार लाभान्वित नही हो पायेंगे। ऐसे कवि से साहित्य या समाज किसी भी प्रकार रस नही मिलेगा। कवि वह भावना है, वह काल्पनिक उपज दै जो कवि के अन्तःस्थल से रस जैसा स्वतः टपकती है। अतः द्विवेदी जी कहते हैं कि कवि बना है तो सबसे पहले फक्कड़ बनना आवश्यक है।

(ग) फूल हो या पेड़, वही अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।

उत्तरः कोई भी वस्तु अपने आप में समाप्त नही होती है। चाहे वह फूल ही या पेड़ । ठीक उसी प्रकार सुन्दरता भी अपने आप में समाप्त नहीं होता हैं। कोई भी शिल्पकला कितना भी सुन्दर क्यो न ही वह यह नही कहता है कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। वह हमेशा यही संकेत करता हैं, कि असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली हैं। वह एक इशारा है।

8. ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक लेख के रचयिता कौन है?

उत्तरः ‘शिरीश के फूल’ शीर्षक लेख के रचयिता हजारी प्रसाद द्विवेदी।

9. किस साहित्य में ‘शिरीष का फूल’ प्राण डाले हुए है?

उत्तरः संस्कृत साहित्य में ‘शिरीष का फूल’ प्राण डाले हुए है।

10. शिरीष का फूल कब फूलता है?

उत्तरः शिरीष गरमी के दिनों में जेठ माह से लेकर भाद मास तक फूलता है। पर, यह वंसत में खिलता है।

11. शिरीष के फूल और फल में क्या अन्तर है?

उत्तरः शिरीष के फूल बहुत ही कोमल होते हैं, वही इसके फल बड़े कठोर और मजबूत होते हैं। इसके फल नये फूलों के निकल आने पर भी नही गिरते।

S.L No.CONTENTS
आरोह: काव्य खंड
Chapter – 1दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
Chapter – 2कविता के बहाने
Chapter – 3कैमरे में बंद अपाहिज
Chapter – 4सहर्ष स्वीकारा है
Chapter – 5उषा
Chapter – 6कवितावली (उत्तर कांड से)
Chapter – 7रुबाईयाँ
Chapter – 8छोटा मेरा खेत
Chapter – 9बादल – राग
Chapter – 10पतंग
आरोह: गद्य खंड
Chapter – 11बाजार दर्शन
Chapter – 12काले मेघा पानी दे
Chapter – 13चार्ली चैप्लिन यानी हम सब
Chapter – 14नमक
Chapter – 15शिरीष के फूल
Chapter – 16भक्तिन
Chapter – 17पहलवान की ढोलक
Chapter – 18श्रम विभाजन और जाति प्रथा
वितान
Chapter – 19सिल्वर वैडिंग
Chapter – 20अतीत में दबे पांव
Chapter – 21डायरी के पन्ने
Chapter – 22जूझ

12. शिरीष के फूल शीर्षक लेख में लेखक ने पुराने नेताओं के सम्भन्ध में क्या कहा है?

उत्तरः लेखक ने शिरीष के फूल से पुराने नेताओ की तुलना की हैं। पुराने नेताओ की अपने गद्दी के प्रति आसक्ति होती हैं। जो जलदी हटना नही चाहते हैं। ये तबतक अपने जगह पर बने रहते हैं। जब तक नई पीढ़ी के लोग इन्हें धक्का मारकर हटा नहीं देते।

13. गरमी के दिनों में अन्य खिलने वाले फूलों के क्या नाम है?

उत्तरः कर्णिकार, ओरग्बेध।

14. जगत के अति परिटित और अति प्रमाणिक सत्य क्या हैं?

उत्तरः जगत के अति परिचित और अति प्रमाणिक सत्य है – बुढ़ापा और मृत्यु।

15. लेखक ने शिरीष को अवधूत क्यों कहा हैं?

उत्तरः क्योंकि शिरीष भी दुःख हो या सुख कभी हार नहीं मानता।

16. शकुन्तला लेखक के अनुसार कहाँ से निकली थी? 

उत्तरः शकुन्तला कालीदास के हृदय से निकली।

17. लेखक के हृदय में कैसी हूक उठती है?

उत्तरः लेखक के हृदय में हूक उठती है कि महात्मा गाँधी आज कहाँ है।

18. परन्तु नितान्त ठूंठ भी नही हूँ – यहाँ लेखक क्या कहना चाहता है? 

उत्तरः लेखक यह कहना चाहता हैं, कि वे बिल्कुल हृदयहीन नहीं है कि वह फूल- पौधों को देख कर भी उमंग अनुभव न करें।

19. जीवन की अजेयता का मंत्र कौन प्रचार करता है और कैसे?

उत्तरः जीवन की अजेयता का मंत्र-प्रचार शिरीष करता है। शिरीष गरमी में जब चारों और के बातावरण में धूप अपना ताण्डव मचाती है तब यग फूलता हैं और आषाढ़ महिनी तक मदमस्त बना रहता है। इस प्रकार गरमी और लू से त्रसित जीवन को शिरीष अजेयता लू का संदेश देता है।

20. प्राचीन भारत के रईसों की वाटिका की शोभा बढ़ाने वाले वृक्षों के नाम लिखे।

उत्तरः प्राचीन भारत के रईसों की वाटिका की शोभा बढ़ाने वाले वृक्षों में- अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष।

21. अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था – यहाँ बूढ़ा किसके लिए कहा गया है? 

उत्तरः यहाँ बूढ़ा शब्द महात्मा गाँधी के लिए कहा गया है।

व्याख्या कीजिए:

1. जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एक मात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयत्ता का मंत्र प्रचार करता रहता है।

उत्तरः प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ के गद्य खण्ड के ‘शिरीष के फूल से ली गई है। इसके लेखक है हजारी प्रसाद त्विवेदी।

यहाँ त्विवेदी जी ने गरमी के दिनों में खिलने वाले शिरीष के फूल को कालजयी अवधूत से तुलना किया हैं।

जब सारी दुनिया गरमी से त्रस्त तथा सारा वातावरण उमस तथा लू त्राहि-त्राहि कर रहा होता हैं। और मनुष्य इस भयानक गर्मी से बचने का हर संभब प्रसाय करता है। चिलचिलाती धूप और उसके प्रकोप से हृदय तक सूखने लगता है। गरमी के कारण जब धरती अग्निकुण्ड बन जाती है, तब शिरीष का पेड़ अपने कोमल फूलों से लदा होता हैं। लेखक कहते है गरमी, से शिरीष के फूलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जिस प्रकार आँधी, लू और गरमी की प्रचड़ता में अवधूत अविचलित होकर रहता है, उसी प्रकार शिरीष के पेड़ पर भी इन सब का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। गरमी की प्रचड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोलम पुष्य बिखेरता रहता है। उसके फूल हमें यह संदेश देते ले कि वह अजेय हैं, जीवन का विजय सब क्षेत्र में चिर सत्य हैं।

2. जो कवि अनाशत्क नही रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किये- कराये का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है।

उत्तरः प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक आरोह के ‘गद्य खण्ड’ के ‘शिरीष के फूल’ से ली गई हैं। इसके लेखक है हजारी प्रसाद त्विवेदी जी।

यहाँ लेखक ने महान कवियों के वागवैदग्धता के वैषिष्टता का उल्लेख किया है।

लेखक कहने है, वही हृदय या मन एक सत्कवि हो सकता है, जो आसक्ति के बंधनों को तिलांजलि दें चुका हो। उसका मन पूरी तरह से फक्कड़ता को अपना चुका हो। आसक्ति के घेरे से बाहर दिल से फककड़ मस्तमौला कवि ही साहित्य और समाज को वह विधि दे सकता है जो सदियों के अनुपम और नवीन बना रह सकता है। दूसरी और जो कवि अनाशक्त नहीं बन पाते और अपने साहित्यिक कार्यो का हर समय मूल्यांकन करने में ही उलझा रहे, वह कभी सत कवि नहीं बन सकता है।

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